
सोभित कर नवनीत लिए
सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप
सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप
ऐसी प्रीति की बलि जाऊं। सिंहासन तजि चले मिलन कौं, सुनत सुदामा नाउं। कर जोरे हरि विप्र जानि कै, हित करि चरन पखारे। अंकमाल दै
तजौ मन, हरि बिमुखनि कौ संग। जिनकै संग कुमति उपजति है, परत भजन में भंग। कहा होत पय पान कराएं, बिष नही तजत भुजंग। कागहिं
आजु हौं एक-एक करि टरिहौं। के तुमहीं के हमहीं, माधौ, अपुन भरोसे लरिहौं। हौं तौ पतित सात पीढिन कौ, पतिते ह्वै निस्तरिहौं। अब हौं उघरि
मन धन-धाम धरे मोसौं पतित न और हरे। जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥ ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे। बिषई भजे,
दियौ अभय पद ठाऊँ तुम तजि और कौन पै जाउँ। काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥ ऐसौ को दाता है समरथ, जाके
आनि सँजोग परै भावी काहू सौं न टरै। कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥ मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।
अजहूँ चेति अचेत सबै दिन गए विषय के हेत। तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥ आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन
रे मन मूरख, जनम गँवायौ। करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥ यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ। चाखन लाग्यौ रुई गई उडि़,
जनम अकारथ खोइसि रे मन, जनम अकारथ खोइसि। हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥ निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल। काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥ महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल। भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत
रतन-सौं जनम गँवायौ हरि बिनु कोऊ काम न आयौ। इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥ कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।
अब मेरी राखौ लाज, मुरारी। संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥ और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी। उलटि पवन जब
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ। समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥ इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ। सो दुबिधा पारस
बदन मनोहर गात सखी री कौन तुम्हारे जात। राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥ लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात। अति मृदु
कहां लौं बरनौं सुंदरताई। खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥ कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई। मानौ नव धन
माधव कत तोर करब बड़ाई। उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥ अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है। पायो परम पदु
सबसे ऊँची प्रेम सगाई। दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर पाई॥ जूठे फल सबरी के खाये बहुबिधि प्रेम लगाई॥ प्रेम के बस नृप सेवा
उपमा हरि तनु देखि लजानी। कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥ मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडि़त दसन-छबि हेरि।
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले। कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥ तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई। रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
हम भगतनि के भगत हमारे। सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥ भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं। जहां जहां
मेटि सकै नहिं कोइ करें गोपाल के सब होइ। जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥ साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं
बृथा सु जन्म गंवैहैं जा दिन मन पंछी उडि़ जैहैं। ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥ या देही को गरब न
सकल सुख के कारन भजि मन नंद नंदन चरन। परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥ सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन। सेस
राखी बांधत जसोदा मैया । विविध सिंगार किये पटभूषण, पुनि पुनि लेत बलैया ॥ हाथन लीये थार मुदित मन, कुमकुम अक्षत मांझ धरैया। तिलक करत
व्रजमंडल आनंद भयो प्रगटे श्री मोहन लाल। ब्रज सुंदरि चलि भेंट लें हाथन कंचन थार॥ जाय जुरि नंदराय के बंदनवार बंधाय। कुंकुम के दिये साथीये
मोहन केसे हो तुम दानी। सूधे रहो गहो अपनी पति तुमारे जिय की जानी॥ हम गूजरि गमारि नारि हे तुम हो सारंगपानी। मटुकी लई उतारि
रानी तेरो चिरजीयो गोपाल । बेगिबडो बढि होय विरध लट, महरि मनोहर बाल॥ उपजि पर्यो यह कूंखि भाग्य बल, समुद्र सीप जैसे लाल। सब गोकुल
हरि हरि हरि सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौं॥ हरि की कथा होइ जब जहां। गंगाहू चलि आवै तहां॥ जमुना सिन्धु सरस्वति आवै। गोदावरी विलंब
वा पटपीत की फहरानि। कर धरि चक्र चरन की धावनि, नहिं बिसरति वह बानि॥ रथ तें उतरि अवनि आतुर ह्वै, कचरज की लपटानि। मानौं सिंह
मो परतिग्या रहै कि जाउ। इत पारथ कोप्यौ है हम पै, उत भीषम भटराउ॥ रथ तै उतरि चक्र धरि कर प्रभु सुभटहिं सन्मुख आयौ। ज्यों
जो पै हरिहिं न शस्त्र गहाऊं। तौ लाजौं गंगा जननी कौं सांतनु-सुतन कहाऊं॥ स्यंदन खंडि महारथ खंडौं, कपिध्वज सहित डुलाऊं। इती न करौं सपथ मोहिं
हरि, तुम क्यों न हमारैं आये। षटरस व्यंजन छाड़ि रसौई साग बिदुर घर खाये॥ ताकी कुटिया में तुम बैठे, कौन बड़प्पन पायौ। जाति पांति कुलहू
ऐसैं मोहिं और कौन पहिंचानै। सुनि री सुंदरि, दीनबंधु बिनु कौन मिताई मानै॥ कहं हौं कृपन कुचील कुदरसन, कहं जदुनाथ गुसाईं। भैंट्यौ हृदय लगाइ प्रेम
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै। गोपी गाइ ग्वाल गौ-सुत सब दीन मलीन दिंनहिं दिन छीज॥ नैन नीर-धारा बाढ़ी अति ब्रज किन कर गहि लीजै। इतनी
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै। गोपी गाइ ग्वाल गौ-सुत सब दीन मलीन दिंनहिं दिन छीज॥ नैन नीर-धारा बाढ़ी अति ब्रज किन कर गहि लीजै। इतनी
अब या तनुहिं राखि कहा कीजै। सुनि री सखी, स्यामसुंदर बिनु बांटि विषम विष पीजै॥ के गिरिए गिरि चढ़ि सुनि सजनी, सीस संकरहिं दीजै। के
तबतें बहुरि न कोऊ आयौ। वहै जु एक बेर ऊधो सों कछुक संदेसों पायौ॥ छिन-छिन सुरति करत जदुपति की परत न मन समुझायौ। गोकुलनाथ हमारे
ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥ प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। माखन रोटी दह्यो
कहां लौं कहिए ब्रज की बात। सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥ गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात। परमदीन जनु
कहियौ जसुमति की आसीस। जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥ मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस। इह घृत तौ उनहीं सुरभिन
कहियौ जसुमति की आसीस। जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥ मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस। इह घृत तौ उनहीं सुरभिन
निरगुन कौन देश कौ बासी। मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥ को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी। कैसो
ऊधो, मन माने की बात। दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥ जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरि
ऊधो, हम लायक सिख दीजै। यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥ तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है। जोगी जती रहित
अंखियां हरि-दरसन की भूखी। कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥ अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी। अब इन जोग
उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥ सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस। स्वासा
फिर फिर कहा सिखावत बात। प्रात काल उठि देखत ऊधो, घर घर माखन खात॥ जाकी बात कहत हौ हम सों, सो है हम तैं दूरि।
ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे। तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥ अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे। तुम्हरे
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै। यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥ यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै। दाख छांडि कैं
नीके रहियौ जसुमति मैया। आवहिंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया॥ जा दिन तें हम तुम तें बिछुरै, कह्यौ न कोउ `कन्हैया’। कबहुं