जिस दिन नीरव तारों से
बोलीं किरणों की अलकें,
सो जाओ अलसाई हैं
सुकुमार तुम्हारी पलकें;

जब इन फूलों पर मधु की
पहली बूँदें बिखरीं थीं,
आँखें पंकज की देखीं
रवि ने मनुहार भरीं सीं।

दीपकमय कर डाला जब
जलकर पतंग ने जीवन
सीखा बालक मेघों ने
नभ के आँगन में रोदन;

उजियारी अवगुण्ठन में
विधु ने रजनी को देखा,
तब से मैं ढूँढ रही हूँ
उनके चरणों की रेखा।

मैं फूलों में रोती वे
बालारुण में मुस्काते,
मैं पथ में बिछ जाती हूँ
वे सौरभ में उड़ जाते।

वे कहते हैं उनको मैं
अपनी पुतली में देखूँ,
यह कौन बता जायेगा
किसमें पुतली को देखूँ?

मेरी पलकों पर रातें
बरसाकर मोती सारे,
कहतीं ’क्या देख रहे हैं
अविराम तुम्हारे तारे’?

तम ने इन पर अंजन से
बुन बुन कर चादर तानी,
इन पर प्रभात ने फेरा
आकर सोने का पानी!

इन पर सौरभ की साँसे
लुट लुट जातीं दीवानी,
यह पानी में बैठी हैं
वह स्वप्नलोक की रानी!
कितनी बीतीं पतझारें
कितने मधु के दिन आये,
मेरी मधुमय पीड़ा को
कोई पर ढूँढ न पाये!

झिप झिप आँखें कहती हैं
यह कैसी है अनहोनी?
हम और नहीं खेलेंगी
उनसे यह आँखमिचौनी।

अपने जर्जर अंचल में
भरकर सपनों की माया,
इन थके हुए प्राणों पर
छाई विस्मॄति की छाया!

मेरे जीवन की जागॄति!
देखो फिर भूल न जाना,
जो वे सपना बन आवें
तुम चिरनिद्रा बन जाना!

Share the Goodness
Facebook
Twitter
LinkedIn
Telegram
WhatsApp
Choose from all-time favroits Poets

Join Brahma

Learn Sanatan the way it is!