वीक्षण अगल:-
बज रहे जहाँ
जीवन का स्वर भर छन्द, ताल
मौन में मन्द्र,
ये दीपक जिसके सूर्य-चन्द्र,
बँध रहा जहाँ दिग्देशकाल,
सम्राट! उसी स्पर्श से खिली
प्रणय के प्रियंगु की डाल-डाल!

विंशति शताब्दि,
धन के, मान के बाँध को जर्जर कर महाब्धि
ज्ञान का, बहा जो भर गर्जन–
साहित्यिक स्वर–
“जो करे गन्ध-मधु का वर्जन
वह नहीं भ्रमर;
मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न;
भेद कर पंक
निकलता कमल जो मानव का
वह निष्कलंक,
हो कोई सर”
था सुना, रहे सम्राट! अमर–
मानव के घर!

वैभव विशाल,
साम्राज्य सप्त-सागर-तरंग-दल-दत्त-माल,
है सूर्य क्षत्र
मस्तक पर सदा विराजित
ले कर-आतपत्र,
विच्छुरित छटा–
जल, स्थल, नभ में
विजयिनी वाहिनी-विपुल घटा,
क्षण क्षण भर पर
बदलती इन्द्रधनु इस दिशि से
उस दिशि सत्वर,
वह महासद्म
लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटिल
ज्यों रक्त पद्म,
बैठे उस पर,
नरेन्द्र-वन्दित, ज्यों देवेश्वर।

पर रह न सके,
हे मुक्त,
बन्ध का सुखद भार भी सह न सके।
उर की पुकार
जो नव संस्कृति की सुनी
विशद, मार्जित, उदार,
था मिला दिया उससे पहले ही
अपना उर,
इसलिये खिंचे फिर नहीं कभी,
पाया निज पुर
जन-जन के जीवन में सहास,
है नहीं जहाँ वैशिष्टय-धर्म का
भ्रू-विलास–
भेदों का क्रम,
मानव हो जहाँ पड़ा–
चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम।
सिंहासन तज उतरे भूपर,
सम्राट! दिखाया
सत्य कौन सा वह सुन्दर।
जो प्रिया, प्रिया वह
रही सदा ही अनामिका,
तुम नहीं मिले,–
तुमसे हैं मिले हुए नव
योरप-अमेरिका।

सौरभ प्रमुक्त!
प्रेयसी के हृदय से हो तुम
प्रतिदेशयुक्त,
प्रतिजन, प्रतिमन,
आलिंगित तुमसे हुई
सभ्यता यह नूतन!

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