हमारी एक महिला मित्र हैं !
उनका एक ही काम है – बुराई करना !
वह हर किसी की बुराई करती हैं! उनकी भी,
जिनसे उनकी कोई डायरेक्ट प्रतिस्पर्धा नहीं है तथा उनकी भी, जो उन्हें जानते तक नहीं हैं !
बुराई करना उनका स्वभाव बन गया है ! वह इतनी सहजता से बुराई करती हैं, कि उन्हें शायद पता भी नहीं होता कि वे बुराई क्यों कर रही हैं?
उनसे जब भी बात करो, तो वे बातचीत का नब्बे फ़ीसदी हिस्सा, किसी की बुराई में ही खर्च कर देती हैं !
वे हर उस व्यक्ति से कुढ़ जाती हैं, जिसकी कुछ बड़ाई हुई हो, या उसने कुछ सफलता अर्जित की हो !
बहुत बार उनके मुंह से दूसरे की बुराई सुन कर मैं मन ही मन कांप उठता हूं कि ‘हे भगवान, ये पीठ पीछे मेरी कैसी न बुराई करती होंगी !!’
बुराई से भरा चित्त सब ओर नकार ही नकार देखता है ! लिहाजा वे भी नकारात्मक है !
ऐसा व्यक्ति ईर्ष्यालु, झगड़ालू और चिड़चिड़ा होता है, सो वे भी हैं !
फिर भीतर जैसे भाव होते हैं वैसा ही चेहरा भी हो जाता है ! तो स्वाभाविक ही, उनका चेहरा भी बहुत रुखा और ईर्ष्या की झाइयों से भरा है !
इधर जैसे-जैसे उम्र होते जा रही है, उनका चेहरा और भी विकृत और कुरूप होता जा रहा है !
महत्वाकांक्षी व्यक्ति जब कुछ नहीं कर पाता, तो बुराई करने लगता है !
गोया यही उसका रोजगार हो जाता है !
जैसे कोई सेल्समैन अपने प्रोडक्ट की खूबियां बताता है, वैसे ही बुराई करने वाला व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति की बुराइयां बताता है !
सेल्समैन का लक्ष्य अपने प्रोडक्ट को बेचना है! बुराई करने वाले का लक्ष्य, ‘लक्ष्यित व्यक्ति’ को बुरा सिद्ध कर देना है !
अगले व्यक्ति के मन में “लक्ष्यित व्यक्ति” की छवि धूल-धुसरित कर देना, बुराई करने वाले की सफलता है !
वह जी जान से इस काम में जुटा रहता है !
उसका टारगेट साफ होता है, – ‘जैसा मैं होना चाहता था और न हो पाया, वैसा मैं किसी को नहीं होने दूंगा !’
इधर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, उसकी कुंठा भी बढ़ती जाती है !
कुंठा के अनुपात में उसके “वाक् हथियार” भी धारदार होते चले जाते हैं !!
अब वह सफल व्यक्ति की महज़ सफलता की ही बुराई नहीं करता, बल्कि उसके रंग-रूप की भी बुराई करने लगता है !
फिर आगे बढ़कर उसकी भाव भंगिमाओं की, उसके सर्किल, उसकी उठ बैठ की भी !
अंततः कहीं सफलता न मिलती देख, वह
‘डर्टी गेम’ पर उतर आता है ! और वह है.. दूसरे व्यक्ति पर, चारित्रिक बुराई का लांछन लगाना !
यह उसका ब्रह्मास्त्र होता है क्योंकि बहुधा इस तरह की बातों में, अगले व्यक्ति की रस ग्रंथियां तृप्त होने की पूरी संभावना होती है !
विशेषकर भारत जैसे देश में, जहां हर दूसरा व्यक्ति सेक्स कुंठित और मनोरोगी है, वहां चारित्रिक बुराई के प्रोडक्ट की खपत फटाफट हो जाती है !!
दरअस्ल, कुंठा ही बुराई की जननी है ! कुंठा एक ऐसा घटक है जो प्रायः हर व्यक्ति के चित्त में कम अधिक मात्रा में पाया ही जाता है !
बुराई सुनते ही, कुंठा की वह ग्रंथि उत्तेजित हो उठती है और उससे रस स्राव होने लगता है ! फिर वह व्यक्ति न चाहते हुए भी, यंत्रवत “बुराई रस” का रसास्वादन करने लगता है !
बुराई का वायरस, कमजोर इम्यूनिटी वालों को जल्दी संक्रमित कर देता है ! फिर यह बुराई #करोनावायरस की तरह एक से दूसरे में संक्रमित होती जाती है ! और कम्युनिटी स्प्रेड की अवस्था में, इसकी चेन का पता नहीं चलता !
अगर बुराई से किसी की छवि ढहाई जा सकती है, तो बुराई से बड़ा संहारक जैविक हथियार दूसरा कोई नहीं !!
बुराई करने वालों में तीन प्रकार, बहुतायत से मिलते हैं !
एक – प्रतिभाहीन महत्वाकांक्षी,
दूसरा- कर्महीन प्रतिभाशाली और
तीसरा – घरघुस्सू जलन्टू !
इसके अतिरिक्त, असफल प्रेमी/प्रेमिका भी अपने “अप्राप्य प्रेम” के कठोर निंदक होते हैं !
हालांकि बुराई, कुत्ते के मुंह में आई वह हड्डी है, जिसको चबाने से कोई पोषण नहीं मिलता.. उल्टे जीभ में दो-चार घाव ही लग जाते हैं !
किंतु तब भी,
बड़े से बड़ा प्रश्न यह है कि
“क्या बुराई का असर पड़ता है? ”
यदि हां, तो यह बड़ी डरावनी बात है !
क्योंकि कान के कच्चों पर तो इसका असर पड़ता ही है !
“कान का कच्चा”
पहले मैं इसका अर्थ नहीं समझता था ! मुझे बाद में पता चला, कि इसका अर्थ होता है – ‘सुनी सुनाई पर तुरंत भरोसा कर लेना ‘
कहना न होगा कि शुरू शुरू में मैं भी कान का कच्चा था, और कहे सुने पर भरोसा कर लेता था !
किंतु जब बहुत बार मैं “बुराई बाण” के ‘शिकार’ व्यक्ति से रूबरू मिला, और उसे अच्छा व्यक्ति पाया ! तब मुझे पता चला कि मैं कान का कच्चा था !
अब मैं कही सुनी पर भरोसा नहीं करता ! प्रत्यक्ष पर ही करता हूं !
क्योंकि किसी व्यक्ति के मुताल्लिक़ नब्बे फीसदी बातें तो उसके चेहरे-मोहरे और “औरा” से ही पता चल जाती हैं !
फिर जब आप लंबे सार्वजनिक जीवन में होते हैं तो आपकी अनुभवी आंखें,.. सच्चा झूठा,
हीरा-पत्थर तत्क्षण पहचान लेती है !
भारत जैसे देश में जहां नकली प्रोडक्ट ख़ूब बिकते हैं,
वहां स्वयं की आंखों पर भरोसा किया जाना ही श्रेयस्कर है !
क्योंकि यहां एक ओर “अच्छे” की बुराई करने वाले बेतहाशा भरे पड़े हैं,.. तो वहीं दूसरी ओर, इसका जस्ट ऑपोजिट भी है !
यानि “बुरे” की तारीफें करने वाले भी मौजूद हैं !
दोनों ही स्थितियां घातक हैं !
ज्यादा से ज्यादा यही किया जा सकता है कि, जिन्हें हम ऑथेंटिक मानते हैं, किसी अन्य के बाबत, उनकी कही बात पर कामचलाऊ भरोसा किया जा सकता है !
किसी को ठीक-ठीक पहचान पाना, हंसी खेल नहीं !
भावुक व्यक्ति, भावना से धोखा खा जाता है, बौद्धिक व्यक्ति, बुद्धि से,
हल्का व्यक्ति, रूप रंग से प्रभावित हो जाता है !
गीता में सात्विक राजसिक और तामसिक व्यक्ति के लक्षण और आदतें बताई गई है !
उदाहरणार्थ, सात्विक व्यक्ति की त्वचा, पतली और तेजस्वी होती है ! वह अल्पाहारी और ज्ञान प्रवृत्त होता है !
राजसिक व्यक्ति चौकोर शरीर का, गतिशील और मांसल होता है !
वहीं तामसिक व्यक्ति, मोटी त्वचा का, भोजन भट्ट और स्व-केंद्रित होता है !
इधर वेस्टर्न साइकोलॉजी में भी पर्सनैलिटी ट्रेट्स को लेकर अनेक थ्योरीज़ मिलती हैं!
… हम एकाकी नहीं जी सकते, हमें मनुष्यों से वास्ता पड़ता ही है, लिहाजा मनुष्य को पहचानने की कला विकसित करना, महानतम कला है !
अच्छे लीडर के लिए तो यह, परम आवश्यक तत्व है कि वह विश्वासपात्र और धोखेबाज की साफ पहचान कर सके!
… इस संबंध में ‘निंदा प्रधान’ और ‘प्रशंसा प्रधान’ दोनों ही तरह के व्यक्तियों की राय से बचना चाहिए !!
… अव्वल तो हम स्वयं भी, अपनी वासना और लिप्सा के अनुरूप ही किसी से प्रभावित या अप्रभावित होते हैं !
…जो भी हो,
किंतु एक बात तो तय है.. जिसे आदमी पहचाने कि कला आ गई, उसकी आधी जिंदगी सफल हो गई !