मानव जीवन की अधिकतर समस्याओं का मूल है- ‘आधा जानना’ किंतु ‘पूरा मानना ‘
फिर चाहे वह धर्म की उद्घोषणा हो या दर्शन के प्रतिपादन,
सामाजिक व्यवस्था हो या राजनैतिक संकल्पनाएं ,
अध्यात्म हो कि विज्ञान,,
अथवा मनुष्य के भाव, बुद्धि या प्राण के पृथक-पृथक अनुभव ही क्यों न हों !!

‘अधूरा जानना और पूरा मानना’ – यह दुराग्रह, उसे अन्यों के साथ, अंतहीन संघर्ष में प्रवृत्त कर देता है !!
फिर विज्ञान, अध्यात्म के विरोध में आ जाता है.. और अध्यात्म, विज्ञान के !
आस्तिक, नास्तिक के विरोध में खड़ा हो जाता है और नास्तिक, आस्तिक के !!
एक धर्म, दूसरे धर्म के विरोध में आ जाता है ,
एक मत, दूसरे मत के !!
अधूरे वाद, स्वयं को पूर्ण मान, दूसरे से विरोध में संघर्षरत हो जाते हैँ !!
क्योंकि एक का सत्य कुछ और है, दूसरे का कुछ और !

व्यक्तिगत स्तर पर, मानव के भीतर भी यह संघर्ष जारी रहता है ! जहाँ भावना, बुद्धि के विरोध में खड़ी हो जाती है, और बुद्धि भावना के विरोध में !!
क्योंकि बुद्धि का सत्य कुछ और है, भावना का सत्य कुछ और !!

फिर यह संघर्ष व्यक्ति से निकलकर , समूहों के संघर्ष में बदल जाता है ! भावना से जीने वाले व्यक्ति एक तरफ हो जाते हैं.. बुद्धि से जीने वाले दूसरी तरफ !!
दोनों के अपने सत्य हैं, जो उनके लिए पूर्ण हैं, किंतु संपूर्ण के लिए अपूर्ण !!

पंखुड़ी स्वयं में पूर्ण है, किंतु पुष्प की सम्पूर्णता में उसका निजी अस्तित्व अपूर्ण है !
इस तरह देखें तो पुष्प पूर्ण है, पंखुरी अपूर्ण है !!

इसी तरह जीवन है! वह अनेक पंखड़ियों सहित एकसाथ है!
वह भाव भी है, बुद्धि भी ! शरीर भी है, चेतना भी ! स्थूल भी है, सूक्ष्म भी !भोक्ता भी है, दृष्टा भी! ऑब्जेक्ट भी है, सब्जेक्ट भी !!
प्रकृति उसकी एक अभिव्यक्ति है, चेतना दूसरी !

मनुष्य में यह चेतना, पांच शरीरों और मन, बुद्धि, अहं के अंतःकरण सहित प्रकट होती है !
यह विकास आकस्मिक भी हो सकता है, सदियों के विकासक्रम की कड़ी से गुज़रकर भी !

मानवीय चेतना, सहस्र दल कमल की तरह है!
Thousand petaled lotus !
अलग-अलग पत्र (petal) उसकी पूर्ण संरचना के अंग हैं !
वह शरीर, प्राण, भावना, बुद्धि और द्रष्टा का समेकित रूप है !
हर अंग के अपने अनुभव हैं ! हर अंग की अपनी खिलावट है ! सभी अंगों का पूर्ण विकास, मानवीय चेतना की खिलावट है !
और यह कोई थोपा गया विचार नही है, यह प्रत्येक मनुष्य का निजी अनुभव है !
उसके पास शरीर भी है, प्राण भी, भाव भी हैं , बुद्धि भी, और इन सबका साक्षी भी वहीं मौज़ूद है !!!
किंतु अगर हम एक ही अंग के अनुभव को पूर्ण माने, तो हम अन्य अंगों के साथ संघर्ष में खड़े हो जाते हैं और पूर्ण सत्य से वंचित रह जाते हैं !

क्योंकि भावना के अनुभव को, बुद्धि की समझ से नहीं जाना जा सकता !!
इसी तरह देह जो आयाम स्पर्श करती है, उसे बुद्धि नहीं छू सकती !
एक मैराथन धावक, मीलों दौड़ने के पश्चात, जब रूकता है, तो सिर्फ और सिर्फ ऊर्जा ही अनुभव करता है !
वह लगभग जीरो ग्रेविटी फील्ड में होता है !!
देह का यह अनुभव, भावना और बुद्धि से जुदा है !! इसी तरह बुद्धि के अनुभव, भावना और शरीर से पृथक हैं !!
… किंतु जब हम एक अनुभव को दूसरे पर थोपने लगते हैं तो फिर..
हमारी मान्यताएं कुछ इस तरह निर्मित होती हैं !

..एक तरफ वे लोग हो जाते हैं जो मानते हैं कि ‘ईश्वर नहीं है !’
दूसरी तरफ वे हो जाते हैं जो मानते हैं कि ‘ईश्वर है !’
ईश्वर को नहीं मानने वालों के अपने तर्क हैं !
ईश्वर को मानने वालों के अपने अनुभव हैं !!

अनीश्वरवादी, विकासवाद के सिद्धांत, निष्ठुर प्रकृति, नृशंस फूड चेन और प्रार्थनाओ के बेअसर हो जाने जैसी बातों को आधार बनाकर, किसी करुणामयी ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर देते हैं !
उनकी दृष्टि, जगत की अराजकता और असंगति पर अधिक होती है !!
डार्विनवाद, होमो सेपियंस का उद्विकास जैसी थ्योरीज़ उनके लिए प्रमाण हो जाती हैं ! और सात्रे, नीत्शे, हॉकिंस उनके चित्त में देवता की तरह प्रतिष्ठित हो जाते हैं !!
फिर वे देकार्ते, लाइब्निज़, स्पिनोज़ा को नही पढ़ते !
वे ऋग्वेद, उपनिषद, योग, तंत्र या… अन्य धर्मो के भी आत्म विज्ञान को नही पढ़ते !
और अगर पढ़ भी लें, खंडन-मंडन की दृष्टि से ही पढ़ते हैं और निर्दिष्ट प्रयोगों से कभी नही गुज़रते !
इस तरह अपने आधे सत्य को ही पूर्ण जानकर वे एक पाले में खड़े हो जाते हैं !
वह भी तब जबकि वह सत्य महज़ जानकारी है, उनका स्वानुभव नही !!
चाहे वह बिग बैंग बैंग सिद्धांत से ब्रह्मांड के विस्तार को जानने की बात हो, अथवा अमीबा से होमो सेपियंस तक मानव के उद्विकास का अध्ययन,
अंततः तो सब सिद्धांत ही हैं !!

आधी सदी, मानवता किसी एक सिद्धांत पर विश्वास करके जीती है !
फिर कोई दूसरी थ्योरी आती है, और उस पुरानी थ्योरी को पूरी तरह से बदल देती है !
कल जो न्यूटन ने कहा था, बाद में कोई आइंस्टीन उसे झूठा सिद्ध कर देता है !
आज जो हॉकिंस कह रहे हैं, कल कोई जॉनसन उसे झूठा सिद्ध कर सकता है ! और फिर कल कोई उसे भी !!
इस तरह एक पूरे कालखंड में मानवता झूठ के साथ जी जाती है !!
अब तक वह जान रही थी कि, सूरज पृथ्वी के चक्कर लगाता है, फिर एक दिन पता चलता है कि नहीं, पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है !
और एक पूरी सदी का मनुष्य, एक अधूरे सत्य के साथ जी कर मर जाता है !

नहीं, हमारे मानने का यह ढंग बिल्कुल ही गलत है ! यह सत्य को एकांगी दृष्टि से देखना है!
यह खिड़की से आसमान के विस्तार को देखने जैसा है !!
अगर खिड़की से बाहर आया जा सकता है, तो आया ही जाना चाहिए !!

वहीं दूसरी तरफ, ईश्वर को मानने वालों की दृष्टि, जगत की सुसंगतता और व्यवस्था पर अधिक है !!
उनके अनुसार, वह अंतरिक्ष हो कि सौर मंडल, , जीव वनस्पति हों कि मनुष्य, संपूर्ण विश्व एक सुनियोजित ढंग से चल रहा है !
एक एक कोशिका की संरचना, उसका उदभव, विकास और अंत, एक सुव्यवस्थित, प्रोग्राम की तरह है ! समूचा ब्रह्मांड एक सुसंगती में है !!

इधर बड़े-बड़े वैज्ञानिकों में भी अनेक ऐसे हैं, जो किसी “अतिचेतना” की मौजूदगी को मानते हैं.., तो वही महान दार्शनिकों में अनेक ऐसे हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं !
दोनों ही अधूरे सत्य में है !

जगत सभी सत्यों का संश्लिष्ट रूप है !
ईश्वर है भी, नहीं भी !
सूक्ष्म परिशुद्ध चेतना अगर ईश्वर की तरह अनुभव में आती है, जो सर्वत्र प्रेम का विस्तार ही देखती है…. तो वहीं प्रकृति एवं मानव की अचेतन अवस्था, घोर अराजकता एवं भीषण दुःख की तरह अनुभव में आती है जो किसी ईश्वर की उपस्थिति से इंकार करती है !

प्रकृति पर अवधान करने से ‘ईश्वर नहीं है’ यह भाव दृढ़ होता है !
चेतना पर अवधान करने से ‘ईश्वर है’ यह भाव दृढ़ होता है !
प्रकृति के नियमों का रहस्योद्घाटन विज्ञान है !
चेतना की अवस्थाओं का रहस्योद्घाटन अध्यात्म है !!

दोनों ही सत्य हैं, किंतु अधूरे सत्य हैं ! हम जिस तरह देखना चाहे देख सकते हैं !
सब्जेक्ट को देखना अध्यात्म है ! ऑब्जेक्ट को देखना विज्ञान है ! दोनों ही अपूर्ण हैं !
जबकि मानवीय चेतना पूर्ण है!
वह सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट दोनों है ! और दोनों ही नही भी है ! वह भोक्ता भी है दृष्टा भी, और इन दोनों की यूनिफाइड फ़ील्ड भी है !
यह फ़ील्ड, एकत्व का अनुभव है ! यह चेतन है ! जिन्होंने इसे अनुभव किया, वह इसे ईश्वर भी कह सकते हैं !
वह चाहें तो इसे ईश्वर ना कहकर कुछ और भी कह सकते हैं !

अगर इसे ईश्वर कहें.. तो यह ईश्वर हमारी खोज नहीं है, क्योंकि वह तो मौज़ूद ही है !
वह हमारे विकास की अंतिम संभावना है!
वह चेतना का उच्चतम शिखर है !
किंतु उस शिखर को अनुभव किए बिना, उसे मान लेना भी ठीक नही !
यह व्यक्तिगत जिम्मेदारी से पलायन है ! यह झूठा वक्तव्य है और हजार फसाद की जड़ है !

इसी तरह, चेतना को जाने बिना उसका अस्वीकार भी चेतना की उपलब्धि से पलायन है !
क्योंकि फिर ऑब्जेक्ट को जानकर क्या कीजिएगा, अगर सब्जेक्ट का ही पता ना हो??

मूल बात यह है कि क्या हम समग्र को जान सकते हैं??
क्या समग्र को अनुभव किया जा सकता है??
क्या समग्र को जिया जा सकता है??
अगर हां, तो वही पूर्ण जीवन है !
क्योंकि वही हमारी उच्चतम संभावना है !
फिर उसे प्रकट किए बिना गुज़र जाना, मानव जीवन की बड़ी से बड़ी विफलता है !
फिर उस समग्र के अनुभव को हम चाहे जो नाम दें !
चाहें तो उसे ईश्वर कहें, चाहें तो शून्य कहें, चाहे तो विश्व प्रवाह कहें ! और चाहे तो ईश्वर ना भी कहें !
हम क्या कहते हैं इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता !
किंतु हम क्या अनुभव करते हैं, इससे हमारी गुणवत्ता बदल जाती है !

पार्ट का अनुभव, पार्ट का जीवन है ! समग्र का अनुभव समग्र का जीवन है !
अंश को देखना, अंश में जीना है !
फिर उसमें तृप्ति भी नहीं है, एक रिक्तता और एक खालीपन का भान मौज़ूद है !

अगर हमारी चेतना के कमलदल में.. पांच पत्र हैं, तो पांचो को ही खिलना चाहिए !
एक पत्र का खिलना, खिलना नही है !

प्रकृति में कोई पुष्प ऐसा नहीं है, जो सारे पत्रों के साथ न खिलता हो !!
एक मनुष्य ही है, जो अधूरा खिलता है, क्योंकि उसके सारे पत्र झुके हुए हैं !
कभी कोई एक पत्र खिलता भी है.. तो दूसरा झुक जाता है !!
यह ऐसा ही है जैसे किसी लकवा ग्रस्त व्यक्ति का, एक हिस्सा काम करता हो, मगर दूसरा नहीं !!

यहाँ हर मनुष्य लकवा ग्रस्त है !
उसकी चेतना के सारे हिस्से काम नहीं कर रहे !
क्योंकि उसका सत्य, आधा सत्य है..
उसका जीवन, आधा जीवन है !

Comments
Sharing Is Karma
Share
Tweet
LinkedIn
Telegram
WhatsApp

know your dev(i)

!! Shlok, Mantra, Bhajan, Stories, temples all in one place !!

Join Brahma

Learn Sanatan the way it is!