अयोध्या रामजन्मस्थान की खुदाई में ईसापूर्व 1200-1600 साल पुराने निर्माण अवशेष मिले हैं। पुराविदों के अनुसार, खुदाई में जन्मभूमि की आर्कियॉलॉजी ईसापूर्व 2600-4000 तक जाने का संकेत है, अर्थात बुद्ध के जन्म से 1000 साल पहले के साक्ष्य तो उपलब्ध हैं ही, फिर सवाल क्यों? झूठी बहस किसी को नहीं करनी चाहिए।
बुद्ध का तो जन्म ही नहीं हुआ था तब से अयोध्या में जन्मभूमि की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। जातक में बुद्ध ने तो स्वयं ही माना है कि वह पूर्व जन्म में राम थे। इसी कारण वह भगवान विष्णु के अवतारों में गिने गए। वैदिक सांख्य दर्शन का अनुकरण कर उन्होंने उसे नवीन बौद्धिक आवरण प्रदान किया। इस प्रकार भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान से अनुस्यूत सांख्य- ध्यान और योग के समन्वय ने विश्व भर में नई चेतना का संचार किया।
बुद्ध शुद्धोधन के पुत्र थे और शुद्ध सनातनी थे, वैसे ही जैसे सामान्य आचारवान श्रद्धालु सनातनधर्मी के लक्षण होते हैं, वैसे ही उनका भी जीवन हमें पग-पग पर दिखाई देता है। कुछ संकेत ही पर्याप्त हैं। जैसे, चिकित्सा में जिस गोमूत्र के प्रयोग पर नवदलितवादी प्रश्न करते हैं तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि यह निर्देश शाश्वत रूप में बुद्ध ने अपने अनुयायियों को ही दिया था।
विनय पिटक में इसका आख्यान मिलता है जिसमें कहा गया है कि भगवान बुद्ध तो नित्य देसी गाय के गोमूत्र से निर्मित आयुर्वेदिक ओषधियों का सेवन भी करते थे और सभी भिक्षुओं के लिए उन्होंने गोमूत्र, गोरस और पंचगव्य के सेवन का निर्देश दिया था। बौद्ध भिक्षुओं के लिए जो चार प्रमुख निश्रय अर्थात नियम व आचार पालन के निर्देश भगवान बुद्ध ने विनय के अन्तर्गत बताए हैं उसमें पाली में कहा गया है कि-
- भिक्षा में मिला हुआ भोजन ही करना है
- चीथड़ों को बटोरकर बने चीवर का वस्त्र पहनना है
- वृक्ष की छाया तले अर्थात वन और उपवन में ही निवास करना है
- गोमूत्र का नित्य सेवन और गोमूत्र की ओषधियों का सेवन करना है। इसमें पंचगव्य को भी अतिरेक-लाभ में रखा गया। मूल वचन इस प्रकार है-
उत्तिट्ठपिंडो आहारो, पूतिमुत्तं च ओसधं।
सेनासनं रुक्खमूलं, पंसुकूलं च चीवरं।
यस्सेते अभिसंभुत्वा, स वे चातुद्दिसो नरो।।
खड़े-खड़े प्राप्त भिक्षा जिसका भोजन है। पूतिमुत्तं अर्थात् गो-मूत्र और उससे बनी दवाएं जिसकी औषधि हैं, वृक्षमूल जिसका वासस्थान है और जिसका चीवर चीथड़ों का बना है, वह ही भिक्षु चारों दिशाओं में बसे।
इन तथ्यों से जाने क्यों कथित नवबौद्ध मुंह चुराते हैं या चर्चा से दूर भागते हैं। भगवान बुद्ध के संपूर्ण दर्शन को इस तरह प्रस्तुत करते हैं मानो उनका अवतार ही वैदिक सनातन धारा को नष्ट करने के लिए हुआ। इससे बड़ा झूठ इस संसार में क्या हो सकता है। वामपंथी जब दर्शन को पढ़ता है तो उसका कचरा किस तरह करता है, उसी का यह जीवंत प्रमाण है।
धम्मपद में पाली में एक आख्यान आता है जिसमें भगवान कहते हैं कि
न हि वेरेण वेराणि
सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति
एस धम्मो सनन्तनो ॥
अर्थात वैर से वैर का शमन नहीं होता। अवैर अर्थात प्रेम से ही वैर का शमन हो सकता है। यही सनातन धर्म है।
बौद्ध परंपरा में मूलसर्वास्तिवादी विनय में भी यह कथन मिलता है कि
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
इस संपूर्ण कथन की प्रेरणा भगवान बुद्ध को कहां से मिलती है तो मनु स्मृति का एक श्लोक है जो महाभारत में भी यथावत प्राप्त होता है, इसमें कहा गया है कि सत्य बोलिए किन्तु प्रेम से और प्रिय बात ही बोलिए। ऐसा मत बोलिए जो किसी को कष्ट दे, जिससे दुख उत्पन्न हो। प्रेम से विषाद दूर हो सकता है। और यही सनातन धर्म है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न
ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयाद्
एष धर्मः सनातनः।
जितने वामपंथी चिन्तक हैं, नवबौद्ध हैं या कथित दलितवादी हैं जो खुद को मूल निवासी कहते हैं या आर्यों को विदेशी तो उनके मुंह में भगवान के चार आर्य सत्य की व्याख्या के समय इस प्रश्न पर मक्खन क्यों भर जाता है और वाणी अवरुद्ध क्यों हो जाती है कि भगवान तो आर्य शब्द का इस्तेमाल सकारात्मक अर्थों में कर रहे हैं।
जीवन के सत्य को वह आर्य कहते हैं, जिसे एक नस्ल बताकर इतिहास में वामपंथ ने अंग्रेजी हुक्मरानों और सेक्युलरवादी ढोंग के चक्कर में पड़कर कचरा भर दिया।
ऐसे कितने ही आख्यान हैं। समय के साथ सभी पर विचार करना ही होगा।