सनातन वैदिक धर्म और उसमें परिकल्पित ब्राह्मण जीवन की व्याख्या भगवान बुद्ध ने भी बहुत सुन्दर ढंग से की थी। श्रावस्ती के जेतवन में कालयक्षिणी ने जब उनसे पूछा था कि धर्म का मर्म क्या है?
तब इक्ष्वाकुवंशी भगवान ने उत्तर दिया था किवैर करने से वैर नहीं खत्म होता, जैसे गंदे पानी से गंदे वस्त्र साफ नहीं होते। वैर तो अवैर अर्थात् मैत्री या क्षमा से ही शान्त होता है। यही सन्त मत है, यही सनातन धर्म है।
न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेन च सम्मन्ति, एष धम्मो सनन्तनो। धम्मपद-5।।
स्पष्ट रूप से भगवान बुद्ध ने किसी नए मत-पंथ की बात नहीं की। उन्होंने प्राचीन काल से भारत में चली आ रही धर्म की शाश्वत अवधारणा को ही नवीन शब्दों और अपने जीवन से पुनर्व्याख्यायित किया। जब भी गुरु नई परंपरा डालते हैं, तो पुरानी नींव पर ही नया निर्माण करते है जिसमें शान्ति और निर्वाण प्राप्ति का ही महत्व है, बाकी कोई बात उसमें महत्व नहीं रखती सिवाय जीवन मुक्ति की कामना के। इस शाश्वत मुक्ति के मार्ग में जो भी बाधक है, उन सबका त्याग ही धर्म का मूल है।
आगे भगवान से मिलने के लिए कौशाम्बी के भिक्षु आए तो उन्होंने भिक्षुओं में कलह होते रहने की चर्चा की तो बुद्ध ने उन्हें समझाया कि एक न एक दिन सभी को विनष्ट होना ही है, जो इस तथ्य को भलीभांति गांठ लेते हैं, वह फिर कभी किसी से कलह नहीं करते।
परे च न विजानन्ति, मयमेत्थ यमायसे। ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।।
भगवान बुद्ध ने धम्मपद में विस्तार से ब्राह्मणों को लेकर भी अपने शिष्यों से चर्चा की है और बताया है कि जैसे कवचधारी क्षत्रिय युद्ध में जाने पर शोभा पाता है, वैसे ही ब्राह्मण समाधि और ध्यान के कारण ही सुन्दर लगता है।
सन्नद्धो खत्तियो तपति, झायी तपति ब्राह्मणो। 387
भगवान बुद्ध सारिपुत्र को कहते हैं कि देखो! कोई किसी ब्राह्मण पर प्रहार न करे, कोई उसे चोट न पहुंचाए। जो मारे उसे भी मारने की आवश्यकता नहीं। मनुष्य परस्पर मनुष्यता के साथ ही रहे और एक दूसरे के विरुद्ध हिंसा न करे।
न ब्राह्मणस्स पहरेय्य, नास्स मुञ्चेथ ब्राह्मणो। धी ब्राह्मणहन्तारं तो धी यस्स मुञ्चति।
अर्थात, कोई किसी ब्राह्मण पर प्रहार न करे। कोई किसी को न मारे। धिक्कार है उसे जो किसी ब्राह्मण को मारता है। मारने वाले को भी मारना नहीं चाहिए। 389
भगवान ब्राह्मणों के चरित्र को लेकर स्पष्टता से निर्देश भी करते हैं कि आखिर शुद्ध ब्राह्मण होने का लक्षण क्या है। वह ब्राह्मणों के आदर्श को सीधे तौर पर रेखांकित करते हैं। उनके इस कथन में ब्राह्मण और श्रमण का जीवन, आदर्श, लक्ष्य और लक्षण एक जैसे ही दिखते हैं। श्रमण और ब्राह्मण में गुणों के कारण कोई भेद वह नहीं बताते।
सक्कचं तं नमस्सेय्य अग्गिहुतं व ब्राह्मणो। 392
मन, वचन और कर्म से जो संयमी है, उसे मैं ब्राह्मण मानता हूं।
एकं वनस्मि झायन्तं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं। 395
जो सदैव एकांत में या वन में ध्यान में रमण करता है, उसे मैं ब्राह्मण मानता हूं।
अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं। 396
जो अकिंचन है, संग्रह करने मे विश्वास नहीं करता, त्यागी है, उसे मैं ब्राह्णण मानता हूं।
संगातिगं विसंयुत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं। 397
जो संसार में रहकर भी अनासक्त है, विषयों के संग से मुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण मानता हूं।
अक्रोधेन वतवन्तं, सीलवन्तं अनुस्सदं।
दन्तं अन्तिम सारीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं। 400
जो किसी पर क्रोध नहीं करता, सदाचरण और व्रत-उपवास से युक्त है, जो इंद्रिय संयमी है, जिसका शरीर इस लोक में अंतिम है, अर्थात् जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं।
यस्स गतिं न जानन्ति, देवा गन्धब्बमानुसा। खीणासवं अरहन्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।
यस्स पुरे च पच्छा च, मज्झे नत्थि च किञ्चनं। अनेजं न्हातकं बद्धं, तमहं ब्रूमि ब्राह्णणं। 421-422
और जिसकी गति देव, गन्धर्व और मनुष्य नहीं समझ पाते या नहीं जानते, जिसके पाप खत्म हो गए हैं और जिन्हें अर्हत्व प्राप्त हो गया है, उसे मैं ब्राह्मण मानता हूं। जिसकी अतीत, भविष्य और वर्तमान काल में कोई आसक्ति नहीं बचती….जो वीर है, महर्षि है, जिसने वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है, जो निष्पाप, निष्कलंक, स्नातक और ज्ञानी है, उसको मैं ब्राह्मण कहता हूं।
यस्स कायेन वाचाय, मनसा नत्थि दुक्कटं
संवुतं तीहि ठानेहि, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।
जो शरीर से, वाणी से और मन से दुष्कर्म नहीं करता, जो मनसा-वाचा-कर्मणा तीनों क्षेत्रों में संयम रखता है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति प्राचीन ब्राह्मणो ।
यम्हि सच्चञ्च धम्मो च सो सुची सो ब्राह्मणो ।। 11 -393.
अर्थ : (कोई) न जटा से, न गोत्र से और न जन्म से ब्राह्मण होता है, जिसमें सत्य और धर्म है, वही शुचि (पवित्र) है और वही ब्राह्मण है।
रहता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसम्भवं ‘भो वादि’ नाम सो होति स चे होति सकिञ्चनो ।।
अकिञ्चनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। 14 -396.
अर्थ : माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण किसी को मैं ब्राह्मण नहीं कहता हूं ‘वह तो केवल ‘भो वादी’ (=भोग ऐश्वर्य परायण वादी) है, वह तो संग्रही है, मैं ब्राह्मण उसे कहता हूं, जो अपरिग्रही और त्यागी है।
बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं!! 💐