भारतीय स्थापत्य कला और पाश्चात्य स्थापत्य कला के ये दो नमूने हैं।

पीसा की मीनार इटली में और भारत के मध्य प्रदेश में कंदरिया महादेव।

खजुराहो में कंदरिया महादेव का यह विशाल मंदिर 100 फुट से अधिक ऊंचा और 282 मीटर के विस्तृत दायरे में फैला हमारे महान प्राचीन स्थापत्य का अद्भुत उदाहरण है। अर्धमंडप, मंडप, महामंडप और गर्भगृह इस प्रकार चार उत्तुंग गहन और गंभीर कलायुक्त शिखरों से सज्जित-ध्वजित(सजा-ध्वजा) यह शिव मंदिर ईस्वी सन 1003 में निर्मित होना शुरु हुआ। इसे तीन चरणों में तीस वर्षों में पूर्ण कर लिया गया। पहला चरण दस वर्ष के अन्दर पूर्ण हो गया। जबकि पीसा की इस ऐतिहासिक मीनार की बुनियाद ईस्वी सन 9अगस्त 1173 के दिन पड़ी। सफेद संगमरमर से निर्मित इस मीनार के निर्माण को पूर्ण करने में 200 साल लगे। ये 183.3 फीट ऊंची है।

कहते हैं कि पीसा की मीनार की दूसरी मंजिल का निर्माण शुरु होते ही ये मीनार कुछ मात्रा में झुकने लगी थी। इसलिए निर्माण की गति मंद पड़ गई। इस झुकी हुई मीनार को बनाए व बचाए रखने के लिए जो खर्च अब तक हुआ है, वह इसकी मूल लागत से भी कई गुना अधिक बताया गया है।

दूसरी ओर कंदरिया महादेव को देखिए। ( केवल अर्थ समझने के लिए– कंदर्प अगणित अमित छबि नवनील नीरद सुंदरम्।। तुलसीबाबा द्वारा लिखित इस पक्ति में भगवान राम की शोभा की तुलना अनंत कामदेव अर्थात कंदर्प से की गई है। इसी कंदर्प से ही कंदर और कंदरिया शब्द आया। कंदर्प के मायने हैं कामदेव और कंदरिया महादेव का अर्थ हुआ जो कामदेव के महादेव हैं, वह भूतभावन देवाधिदेव महादेव शिवशंकर)

चंदेल शासकों ने भगवान कंदर्पिश्वर महादेव के स्वरूप और इस अनूठे संसार के सौंदर्य को अपने स्वप्न में देखकर उस देवविग्रह के स्वरूप को यथावत् अपने महान शिल्पियों की कला के जरिए भूमि पर साकार कर दिखाया। ऐसी बारीक कारीगरी कि दीवारें आज भी बोल उठती हैं। इसे स्वयं के चिकने और सफेद होने का गुण धारण करने वाले श्वेत संगमरमर की चमक से सुन्दर नहीं बनाया गया है इसे अनगढ़ रुखे ग्रेनाइट और रेतीले पत्थरों को मासूमियत और बेहद सतर्कता के साथ हुनरमंद हजारों कलाकारों और शिल्पियों की प्रतिभा ने तरासकर इस तरह बनाया है कि आज भी चांदनी रात में मानो भोलेनाथ और पार्वती(शिव और शक्ति) परस्पर एकाकार होकर संपूर्ण संसार की समस्त कलाओं में तल्लीन ध्यानमग्न इस मंदिर के स्थापत्य के रूप में समस्त स्वर्गिक सौंदर्य को स्वयं में समेटे षोडशकला सम्पन्न दिखाई देते हैं।

ऐसा सौन्दर्य इसके कण-कण में व्याप्त है कि आंखें चकित विस्फारित होकर बस देखती ही रहें। इसका निर्माण देखकर भारत का विगत वैभव आंखों के सामने बस नृत्य करने लगता है। हमारे देश के कारीगरों, तकनीशियन और निर्माण विज्ञान में दक्ष कला-शिल्पियों की यह जादूगरी सहज ही मन को भावविभोरवत् श्रद्धावनत कर देती है, मन का सारा मैल और स्वयं अर्थात आत्मभाव के प्रति सारा दलिद्र और दलितपना मन-आंगन से दूर हो जाता है।

उस समय के संसार में इससे खूबसूरत स्थापत्य दुर्लभतम था। ये स्थापत्य भारत के संपूर्ण लोकमन का दलिद्रपना और दलितपना दूर करने में सक्षम है क्योंकि इसका निर्माण भारत के भावलोक ने ही किया था, और उस भाव को जगाने में यह स्थापत्य आज भी सक्षम है कि वस्तुतः भारतीय वर्ण के चारों अंगों की समवेत प्रतिभा ने किस तरह से भारत के अंग-प्रत्यंग में ऐसी चमकदार और धमकदार कारीगरी भर दी थी कि विश्व भर का मनुष्य आज भी इसे देखकर खुद से ही सवाल करता है कि जो देख रहा हूं क्या सचमुच यह इसी भारत के लोगों की प्रतिभा से ही निर्मित हुआ था, फिर इस देश को दरिद्र और दलित देश कैसे कहा जा सकता है।

ये ऊंचे भवन पत्थरों पर थिरकती, नर्तन करती जिनकी अंगुलियों और उसके पीछे निर्देश देती मानसिक दक्षता, प्रतिभा, हुनर और कुशलता का कमाल हैं उनके मनों को दलित कहने का दुस्साहस आखिर कौन कर सकता है?

कलाबोध किसी देश के लोगों की क्षमता, मष्तिष्क और विशेषता को सहज ही इंगित कर देता है। कहते हैं कि गुप्तकाल और उसके पूर्व मौर्यकाल के भी पहले से तक्षशिला से लेकर नवद्वीप और जावा-सुमात्रा तक पूरे उत्तर भारत की भूमि ऐसे ही सौंदर्यबोध से सम्पन्न शिल्प और स्थापत्य के नमूनों से भरी पड़ी थी। पत्थरों पर कारीगरी के बाद स्वर्ण और चांदी के कुंटल के कुंटल नरम परतों से ये पत्थर भीतर और बाहर भर दिए जाते थे और तब जब सुबह के सूर्योदय की रोशनी और रात की चांदनी इन शिखरों पर पड़ती थी तो समस्त भारत वसुंधरा ही स्वर्णभूमि सदृश चमकती दमकती सारे संसार को मुंह चिढ़ाती दिखाई पड़ती थी।

अहा, कैसी स्वर्णमयी भूमि यह हमारी मातृभूमि। किन्तु कैसी इस पर विदेशी कुटिल दृष्टि गड़ी कि तक्षशिला से नालंदा और नवद्वीप और इंडोनेशिया तक मानो किसी ने इस पूरे जगत-भुवन शिल्प पर ही झाड़ू बुहारा कर दिया और इसी के साथ भारतीय शिल्प और स्थापत्य के वो महान मष्तिष्क भी एक एक कर दीन-दलित बना दिए गए,

जिनके घर-आंगन में सदा ही सोने चांदी के लट्ठे के लट्ठे पड़े रहते थे कि हमें भी गलाओ, सांचों में ढालो, हाथ लगाओ, इस भारत भुवन की मंजिलों पर हमें भी चढ़ाओ। पत्थर और धातुओं की कलाकारी करने वाले महान शिल्पियों के चरणों में सीखने के लिए सैकड़ों विद्यार्थियों की कतार तब लगी रहती थी, उनका घर ही गुरुकुल जैसा होता था जहां उनके शिल्प और तराशखाने IIT की लैब से ज्यादा सुविधा सम्पन्न थे। आज SC-ST की अनुसूची में शामिल सैकड़ों जातियां हैं जो इन्हीं गुरुकुलों से शिक्षा प्राप्तकर उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक जहां जिस भवन में, जिस दुर्ग में हाथ लगा देती थीं, वही पर पत्थर पूजा जाने लगता था।

मंदिरों पर जो भीड़ आज दिखाई पड़ती है, कभी आपने सोचा है कि क्यों एक ही भगवान के दर्शन के लिए लोग सैकड़ों सालों से उमड़ते चले आ रहे हैं, तो सोच बदल लीजिए। ये आंखें उसी पुरातन कला को देखने के लिए मचलती हैं, इनके डीएनए से आवाज आती है कि पुरखों के श्रम से जो भूमि पवित्र हुई, वो स्थापत्य के महान ज्योतिपुंज कहां चले गए। आज भी भारत की करोड़ों आंखें उन भवनों को फिर से जीवंत देखना चाहती हैं क्योंकि भगवान तो एक ही रूप में सर्वत्र हैं गर्भगृह के ईष्ट हैं लेकिन जो शिल्प है, वह प्रत्येक प्रांत का, प्रत्येक भवन का अलग अलग रहता आया है।

हुबहू नकल इस देश ने करना स्वीकार नहीं किया। इसलिए प्रत्येक नए भवन का नया नक्शा, नये पत्थर और नया भावयुक्त शिल्प। किसी दूसरे के भवन पर कब्जा कर लेना, उसे तोड़कर उसके खंभों पर नई छत या गुंबद ढालकर उस पर नया शिलापट लगा देना, यह इस देश की कला परंपरा ने कभी मंजूर नहीं किया। भारत की कला परंपरा निर्माण का संकल्प लेकर चलती है, जिनके पास शिल्प योजना, शिल्प का नक्शा और शिल्प की कल्पना रहती है वो सदा ही नवसृजन करते हैंं, कभी दूसरे का बनाया शिल्प तोड़ते नहीं हैं, बल्कि सदा ही शिल्प में कुछ न कुछ नया जोड़ते हैं।

आज के कथित विद्वानों की भांति दूसरे के लिखे पर अपना नाम चिपकाकर कवर बदलकर विद्यावंत होने का स्वांग भारतीय शिल्पकार ने कभी नहीं किया, वह सदा ही नया गढ़ता गया और देश को आवाज देता गया कि आओ देखो, मैंने और मेरे प्रतिभावंत शिल्पियों की टोली ने जो गढ़ा है उसे आकर पढ़ो,समझो, देखो और बताओ कि यह कृति कैसी बन पड़ी है।

तो इन महान शिल्पियों की कारीगरी और कलाकारी का चमत्कार देखने के लिए एक प्रांत से दूसरे प्रांत तक हर भारतवासी परिक्रमा करता था, हर जनपद से जुड़ी जानपदीय गुरु परंपरा अपने शिष्यों के साथ सीखने-समझने और जानने के लिए शिक्षाटन के लिए देशाटन और तीर्थाटन पर निकलती थी कि आओ देखें तो सही, फला स्थापत्य में किस प्रकार से विशेष शिल्प को फलां गुरुपरंपरा के मार्गदर्शन में निर्मित किया गया है, तो कला कला के बारीक अंतर को पढ़ने के लिए, उसे गहराई से जानने के लिए भी प्राचीन काल से शिक्षाटन के रूप में तीर्थ यात्राओं की प्रत्येक गुरु परंपरा में होड़ लगी रहती थी। ये कलाकार और शिल्पकार थे जो सबसे ज्यादा भारत भ्रमण करते थे, आजतक करते चले आ रहे हैं।

लेकिन आज जो नवीन सियासी मंडल-अनुमंडल बन गए हैं जो केवल दलितदलित की चीखपुकार मचाए हैं, पढ़े-लिखे होने की डिग्री पचास गिनाते हैं, पर भीतर से बहुत ही खाली हैं, विद्या भला उन्हें क्या ही मालूम हो सकेगी क्योंकि विद्या की पूर्व शर्त श्रद्धा-विश्वास-प्रज्ञाबुद्धि और सत्य के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने का अहंकारमुक्त बोधयुक्त निर्वाण परक पवित्र संकल्प से जुड़ा क-ख-ग भी वो नहींं जानते। और भारत को जानना तो बहुत बड़ी बात है, भारत के होकर भी भारत क्या है, इसका वो रंचमात्र भी नहीं जानते, होंगे फॉरेन रिटर्न तो क्या हुआ?

होंगे कहने के लिए विद्वान, अनेकडिग्रीविभूषित लेकिन जब अपनी भूमि से ही नहीं जुड़े, देशभाव-बोध को ही नहीं जाना, जाति-कुल-गुण, परंपरा और पुरखों के गौरव और उनकी गुरुपरंपरा को ही नहीं पहचाना तो भला वो क्या ही समझ पाएंगे कि इस भारत के अखंडमंडल में आखिर उनके पुरखे दिनरात विचरण कर जो भवन और भुवन का विस्तार कर रहे थो तो उनका मन कितना जागृत और सचेष्ट था,

ब्रह्मयुक्त ही था, वह आज की परिभाषा में अंग्रेजों के दिए डिप्रेस्ड वाला दलित नहीं था, वह मन तो जागृत जीवंत और वास्तविक अर्थों में ‘THE-LIT’ अर्थात प्रतिभा के प्रखर प्रकाश से ज्योतित था और निःसंदेह शुद्ध ब्राह्मण मन की उस उच्चासन युक्त, आदर्शयुक्त साधना और उपासना से वह प्रेरित भी था जिसके लिए बुद्ध के वचनों में हमेशा ही साधुवाद साधुवाद ही निःसृत हुआ कि भिक्षुओं में एषो धम्म सनंतनो, ब्राह्मण परंपरा से भिक्षुरूप है, वही वास्तविक श्रमण है जिसमें ब्राह्मणत्व है।

तो सोचिए, समझिए और जानिए कि उन कुशल इंजीनियरों की जिंदगी को दलन के अंधेरे में कौन ले गया, क्यों ले गया, क्या भारत था और क्या हो गया?

 

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