मूर्तियां और मंदिर। इन दोनों ने हिंदू धर्म के वर्तमान स्वरूप की रचना की। इस संबंध में, सुद्रवर्ण और वैश्यवर्ण का योगदान सबसे बड़ा है। इसके अनुष्ठानों में ब्राह्मणों को जोड़ा जाता हैऔर क्षत्रियों ने राज्य स्थापना और उसके विस्तार का एक मापदंड इसे भी बनाया। मंदिर का अर्थशास्त्र शूद्र और वैश्य के जीवन संचालन का मेरुदंड। एक मंदिर के शिल्प का काम पूरा हुआ नहीं कि दूसरे का शिल्प बनना शुरु।

जहां जिसके राज्य में शिल्पियों, श्रमजीवियों के हाथ न थकें और कभी काम के अभाव में ना रुकें, हर वीथिका, हर भूमि जहां मंदिर, कुंड, तालाब, वॉव, पथ, राजपथ, दुर्ग और महलों की अटारी से सजी-संवरी दिखती और चमकती रहे, हर शिखर पर स्वर्ण दमकते रहें, वह ही सबसे श्रेष्ठ राजा और उसके राज्य का चक्रवर्तित्व देखना है तो उसके द्वारा निर्मित स्वर्ण शिखर युक्त मंदिर देखो।

सम्पूर्ण भारत को मंदिरों-स्तूपों-चेतियाओं, शिक्षा के गुरुकुलों, नदियों के किनारे तक्षशिला-नालंदा और घाट जैसे विश्वविद्यालयों से गढ़ा गया, और खजाना फला-फूला, तब शिल्पकारों, धर्म या दामाओं के संघ संघों, श्रेष्ठियों यानी कुबेरों और क्षत्रियों के बाहुबल का ही चमत्कार है। जो समस्त वर्णों और समस्त समाज को जोड़कर न रखे तो फिर वह मंदिर कहां, उसका शिल्प और सौन्दर्य कैसा।

कला भी सुरक्षित और परिधान भी, वतन भी सुरक्षित और धन-धान्य भी, समय की प्रतिभा को सदा निखारते, संवारते चलना यानी मंदिर देखना।

समाज में, देश में, मंदिर लंबे समय से कला, प्रौद्योगिकी, वास्तुकला, वास्तुकला, इंजीनियरिंग, और साथ ही इससे जुड़े धन, या धन के प्रवाह से जुड़े हुए हैं चलायमान रखते रहे थे और आज के युग में भी कुछ मात्रा में रखते हैं।

प्रश्न है कि मंदिर क्यों जाना। तो इसका उत्तर समझना आज के समय में बहुत ही कठिन है। क्यों कठिन है। क्योंकि न वह समय ही रहा और न ही वो मंदिर ही रहे जिन्हें देखने के लिए इंसान लहालोट हुआ जाता था।

मंदिर देखना यानी उसका शिल्प देखना। मंदिर देखना यानी उसकी शैली देखना। मंदिर देखना यानी उसका पूरा वास्तु विधान देखना। मनुष्यों, संबंधित प्राणियों और पत्थरों पर रहने वाले जानवरों को देखने का अर्थ है मंदिरों को देखना।

मंदिर देखना यानी उसके अंग-प्रत्यंग में रची-बसी सूक्ष्म कला को देखना। मंदिर देखना यानी उसे निर्मित करने वाले कारीगरों के बारीक हुनर को देखना।

मंदिर देखना यानी छेनी-हथौड़ी-श्रमसीकर का कमाल देखना। मंदिर देखना यानी उसके ईष्ट की मंत्रमुग्ध कर देने वाली हर दरो-दीवार पर अंकित मुस्कान देखना। उस पर नृत्य करता मदमाता श्रृंगार देखना। मनुष्यों का, उससे जीवन से जुड़े जीवों का, जन्तुओं का पत्थरों पर जीवंत कल्लोल देखना यानी मंदिर देखना।

जिसकी दीवारों पर फैला जीवन रस इतना प्रगाढ़ कि ह्रदय में हुलास भरने वाला, भीतर से हिलोर भर देने वाला चितचोर दृष्य देखना यानी मंदिर देखना। मंदिर देखना यानी मनुष्य जीवन के चौबीस घंटों, बारह महीनों के जीवन चक्र को उसकी परिक्रमा करते करते ही देख लेना। मंदिर देखना यानी अपना विहान देखना और शरीर का अवसान देखना।

मंदिर देखना यानी अखंड ज्योतित आत्मदेव को बस देखते ही रहना। जीवन की निरंतरता को देखना, शरीर की नश्वरता को देखना। भारत के मंदिर की परंपरा बड़ी निराली है, उसे समझने के लिए दिव्य और पावन दृष्टि चाहिए, जिनके मन में दूषण है, अपवित्रता है, कला की कोई समझ नहीं है, जो कला को व्यर्थ की वस्तु मानते हैं, ऐसा कलाविहीन लोगों के समझ से मंदिर की परिधि बहुत बाहर है।

मंदिर देखना यानी उसके विधान, कर्मकांड, मंत्रोच्चारण और त्रिकाल उसकी उपासना विधि को भी देखना। मंदिर देखना यानी समय की घंट ध्वनि की निरंतर सुनते रहना। मंदिर यानी नियमों की अपने जीवन को एक लयबद्ध यात्रा में विकसित करें और जीवन का अनुशासन बनें।

मंदिर यानी मन की चंचलता को मिल जाए विराम। मंदिर यानी सब कुछ परमात्मा का, समय सबकुछ उसे अर्पित करने का, जो मिला है,उसे उसकी सेवा में निखारते रहने का। उसकी साधना हेतु कर्म करने के लिए प्राप्त सद्गुणों के संकीर्तन का आंगन खोल देना यानी मंदिर देखना।

गर्भगृह के पट खुलने की प्रतीक्षा करना यानी मंदिर देखना। प्रतीक्षा के महत्व को समझना, बारी आने पर ही अपना जीवनपुष्प काल के निर्धारित पथ पर अर्पित करने की नियति की इच्छा को समझना, मंदिर को देखना इतना आसान नहीं, उसे समझ पाना तो और मुश्किल।

मंदिर यानी अपने भीतर के योग्यतम की उपासना, मंदिर यानी अपने भीतर के सर्वोत्तम की यात्रा पर चलना, जो नहीं है, जिसकी चाह है, मन के आंगन में जिसका अभाव है, जो मिल जाए तो मानो घट भर जाए, उस परमतत्व को आत्मदेव से मांगना है मंदिर देखना।

जो है उसे और भी सुन्दर बनाने का मंत्रोच्चारण है मंदिर देखना। मंदिर यानी जीवों से भरी इस संसार नदी में सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर विचरण करना। मंदिर देखने का अर्थ है कुछ ऐसा देखना जो लौकिक रूप से नहीं देखा जा सकता।

संसार में डूबा मन जिसे जान नहीं पाता। मन की दहलीज यानी मर्यादा को समझ लेना यानी मंदिर को देख लेना। मंदिर यानी सब मानसिक मलों से मुक्ति, कायिक-वाचिक मल से मुक्ति। मंदिर यानी सारे आश्रव से छुटकारा, मंदिर यानी महाकाल की महानता को जान लेना। म

मंदिर यानी उसके साथ अन्नशाला जहां प्रत्येक को निःशुल्क भोजन प्रसाद के रूप में मिले। भगवान के घर गए और भूखे रहें यह मान्य नहीं उसी प्रकार जैसे भगवान के मैं घर गया और खाली हाथ छोड़ गया, लेकिन यह भी अमान्य है।

जो देने वाला है, वह दे और जो लेने की जरुरत समझता है वह ले ले। मंदिर यानी उसके साथ आयुर्वेदशाला और योगशाला जहां रुग्ण समाज को स्वास्थ्य रक्षा का मंत्र मिले।

मंदिर अर्थात मल्लशाला अर्थात अखाड़े जहां व्यायाम हो और युवकों की टोली शरीर गठन कर समाज रक्षा का दायित्व निभाए। मंदिर अर्थात गुरुकुल जहां बच्चों को संस्कार मिलें, वह शिक्षा मिले जिससे लोक में ज्ञान प्रसारित हो। मंदिर यानी प्रार्थना स्थल। व्यक्ति के मन का स्वास्थ्य ठीक रहे और सामूहिकता का बोध भी हो।

तुम्हारी याद ही मंदिर है। उनके मंदिर की गंदगी भी आपके मन के दूषित होने का सबसे बड़ा सबूत है। देश कैसा है और इसका समाज कैसा है, यह सभी को तब पता चलेगा जब वे मंदिर और उसके बगल में बहने वाली नदी को देखेंगे। समाज आलसी या सक्रिय है, समाज स्थिर है या जॉय दे विवरे के साथ प्रगति कर रहा है, जिसे थोड़ी सी भी समझ होगी वह मंदिर को देखते समय समझ जाएगा।

देश में कला का आदर है या निरादर, बता देंगी मंदिर के शिखर से गूंजने वाली ध्वनि। कला-उत्सव में समाज जीता है या केवल सारा समाज नकली-थकी और बिकाऊ चीजें लेकर कंधे पर ढो रहा है, सबकी गवाही मंदिर देते रहे हैं, दे रहे हैं।

वीरता-बल-विक्रम-शौर्य वाले लोग किसी देश में हैं भी या सबके सब केवल कायरों और दरिद्रों की जमात में बदलते और अवसाद में बैठते चले गए हैं, ये तेरे मंदिर की हालत बता देगी। कुछ भी कठिन नहीं है जानना।

किसी देश के इतिहास का हाल क्या है, वर्तमान कैसा है और भविष्य किसी प्रदेश के समाज का क्या होने वाला है, सब मंदिर देखते ही और देखकर भी आप समझ सकते हैं।

तो सोचिए मंदिर देखने का क्या मतलब होता है। इन सबसे ऊपर, मंदिर एक राष्ट्रीय और लोक कला है, जहां गीत, संगीत और नृत्य मिलते हैं, और मन और शरीर मिश्रित होते हैंसुध-बुध खो बैठें। मन के मंदिर के भीतर के परमात्मा को जगाने की साधना का नाम है मंदिर। शरीर को मंदिर ही तो माना है परंपरा ने। उस शरीर को साक्षात जब भूमि पर पत्थरों से उकेरा जाता है तो मंदिर की कृति बनती है। उसके गर्भगृह में प्राण प्रतिष्ठित देवता उसी तरह वास करते हैं जैसे शरीर के गह्वर में प्राण देवता।

अपने शरीर में सत्य को जानना भी मंदिर बनना है। और भी बहुत से मंदिर हैं। यह भारत भी एक मंदिर और एक शरीर है, यह एक धरधाम मंदिर हो सकता है, हर कोई एक शिल्पकार, योगी, संगीतकार है, अन्नपूर्णा परंपरा उनके आंतरिक यात्रा भोजन पर भोजन, श्रम और श्रम भोज से भरी है। चाहे वह मंत्र हो, गीत हो या संगीत। तभी मंदिर है।

नहीं तो मंदिर नहीं हैं, केवल उस मंदिर परंपरा के खंडहर ही समझो। याद रखो जब तुम्हारे पुरखे सभ्यता के उत्कर्ष पर थे तभी इन मंदिरों के शिखर उठने शुरु हुए, याद रखो जब तुम जमीन पर औंधे मुंह गिरे थे तब तुम अकेले नहीं गिरे थे, तुम्हारे ये शिल्प और समाज के सारे स्वायत्त स्तंभ भी धराशायी हो गए थे।

तुम हो इसीलिए मंदिर हैं, तुम नहीं हो तो फिर कौन सा मंदिर। केवल पत्थरों का संकुल शेष, एक गुम विरासत का अंधेरा पक्ष। इसलिए मंदिर देखना यानी पुरखों के पराक्रम को देखना, मंदिर देखना यानी अपने आत्मबल को आजन्म आवाज देते रहना। निरंतर अभ्यास और परिश्रम, निरंतर आत्म अनुसंधान है मंदिर देखना।

गुलाम देश में मंदिर और उसकी परंपरा पर ही तो सबसे ज्यादा चोट होती रही। क्या कोई समझे कि मंदिर क्या हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं। तुम्हारे पराक्रम का स्वेद और तुम्हारे अवसान के आंसू दोनों ही तो इसकी नींव में समाए हैं। तुम और तुम्हारा स्व है तो ये शिखर भी रहेंगे और जब तुम और तुम्हारा स्व ही शेष नहीं है तो ये भी नहीं रहेंगे।

इदमपि न तिष्ठेत। काशी में गंगा किनारे परंपरा से निर्मित प्रत्येक भवन पर यही लिखा है कि इदमपि न तिष्ठेत कि यह भी नहीं रहेगा। मतलब है कि जबतक तुम्हारा स्व रहेगा यह भवन भी रहेगा, यह भुवन रहेगा और जब तुम्हारा स्व कहीं अनंत आकाश में उड़ जाएगा तो यह नहीं रहेगा। यदि आप हैं तो आप हैं, अन्यथा आप नहीं हैं। और मंदिर का क्या अर्थ है?

लेखक-प्रो. राकेश कुमार उपाध्याय

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