आजकल के लोग पुत्र उत्पन्न नहीं कर रहे हैं, Son ही पैदा कर रहे हैं और ना ही पुत्र उत्पन्न करना चाहते हैं, Son ही पैदा करना चाहते हैं।
पुत्र का अर्थ है पिता जो कर्तव्य पूर्ण ना कर सका, जिस कारण छिद्र रह गया, उन कर्तव्यों को पूर्ण करके पिता के छिद्रों की पूर्ति करके पिता का त्राण करने वाला पुत्र है। पुत्र का पुत्रत्व यही है कि वह पिता के छिद्र की पूर्ति करके पिता का त्राण करता है। पूर्ति से ‘पु’, त्राण से ‘त्र’ – ‘पुत्र’।
कैसे कर्तव्य?
त्वं ब्रह्म, त्वं यज्ञः, त्वं लोक इति; स पुत्रः प्रत्याह, अहं ब्रह्म, अहं यज्ञः, अहं लोक इति;
ब्रह्म को जानना, यज्ञों का अनुष्ठान और लोकों पर जय प्राप्त करना – गृहस्थों के ये तीन कर्तव्य हैं। (पुत्र की बात है तो पुत्र को उत्पन्न करने वाला गृहस्थ ही हुआ।)
- ब्रह्म को जानने के लिए अपने अधिकार एवं कर्तव्य की सीमा में वेदादि शास्त्रों का अध्ययन और स्वाध्याय करना होगा।
- यज्ञ अर्थात् अधिकार की सीमा में बलि वैश्वदेव से लेकर ज्योतिष्टोम, अश्वमेध, पितृमेध आदि का अनुष्ठान करना होगा।
- लोकजय अर्थात् लोकसम्पादन (धर्मसम्मत अर्थ और काम की दृष्टि से) करना होगा।
(प्रमाण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद् 1.5.17 देखिये।)
क्या इनमें से एक भी कर्तव्य कोई अपने बच्चों से करवाना चाहता है?
कितने युवा द्विज मित्र अपने वर्तमान अथवा भविष्य में होने वाले बच्चों को कम से कम एक वर्ष के लिए केवल स्वशाखा (अपने गोत्र से संबंधित वेदशाखा) का पाठ मात्र भी सीखाना चाहते हैं? और, शूद्रादि मित्र बच्चों को इतिहास-पुराणों का श्रवण उपदेश मात्र भी ग्रहण करवाना चाहते हैं?
कितने मित्र दिन में एक बार भी यह विचार करते हैं कि हम तो आधुनिकता के जाल में फंसकर यज्ञादि कर्मकाण्ड ना सीख पाये, लेकिन अपने वर्तमान अथवा भविष्य में होने वाली सन्तति को कम से कम अनिवार्य नित्यकर्म तो अवश्य ही सिखाएँगे?
महत्वपूर्ण तो यह कि कितने मित्र यह विचार करते हैं कि वे अपने बच्चों के लिए वर्णाश्रम धर्म के अनुसार धर्मसम्मत जीवन जीने के लिए अर्थोपार्जन की नीति के गहन अध्ययन एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करेंगे?
केवल एक मित्र ही ऐसे मिले जिन्होंने मुझसे कहा, “मैं तो आधुनिक शिक्षा और नौकरी आदि में लगकर आंशिक कर्मसंकर हो गया, लेकिन अपने बच्चों को पूर्णतः वैदिक रीति से अध्ययन करवाऊँगा।” हालाँकि अभी उनका विवाह नहीं हुआ है, उन्होंने भविष्य में होने वाली संतान के लिए कहा।
गौतम धर्मसूत्र 3.2.1 कहता है “त्यजेत्पितरं…वेदविप्लावकं” अर्थात् वेदों की हानि करने वाले पिता को त्याग देना चाहिए। ना त्यागने वाला पतित हो जाता है। सोचिये! वेदों की हानि करना कितना बड़ा पाप है, ब्राह्मण की हत्या के समान पाप है।
कैसी हानि?
वेदों को पढ़ने-पढ़ाने का लोप करने से जो वेद का तिरस्कार हुआ, यही वेद की हानि है। ब्राह्मण के लिए वेद पढ़ना-पढ़ाना दोनों लागू होंगे, क्षत्रिय व वैश्य के लिए केवल पढ़ना। क्षत्रिय और वैश्य अपने पुत्र आदि को पढ़वाने के लिए उन्हें ब्राह्मण के पास भेजें। शूद्र, स्त्री, वर्णसंकर, अन्त्यज, पतित आदि को इतिहास, पुराण एवं तंत्रशास्त्र आदि के श्रवण का अधिकार है, गुरुमुख से इनके गूढ़ रहस्यों को जानने में और धर्म-ब्रह्म के ज्ञान में सब अधिकृत हैं।
इसके तिरस्कार के कारण ही 1131 वेद शाखाओं में से अब केवल 12 शाखाएँ ही बची हैं। प्रत्येक शाखा की अपनी मंत्र संहिता, ब्राह्मण भाग, आरण्यक भाग और उपनिषद् हैं। लेकिन आज मुट्ठीभर ही प्राप्त होते हैं।
जैसे-जैसे वेदादि शास्त्र लुप्त होते गए, वैसे-वैसे हम गुलाम होते गये, अब भी हो रहे हैं। कर्मफल का सिद्धांत मिथ्या थोड़े ही है।
पिता बनकर पुत्र उत्पन्न कीजिये, वही धर्मस्थापना कर सकेंगे। Dad के Son के परिणाम अपने आसपास देख लीजिए।।
लेखक – Kshitij Somani