कोई डर नहीं, कोई फिकर नहीं!
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।। 3.8 श्रीमद्भवगद्गीता।
आपके लिए जो निर्धारित कार्य है, उसे मन-बुद्धि लगाकर मनोयोगपूर्वक करो। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही सबसे बढ़िया मार्ग है। और अगर कर्म नहीं करोगे तो जीवनयात्रा-शरीर का निर्वाह करना भी असंभव हो जाएगा।
व्याख्या अर्थात सरल टीकाः-
अर्जुन से भगवान कहते हैं कि हर हालत में कर्म करो। खाली मत बैठे रहो। कोई कार्य नहीं है तो कार्य खोजो। अपने भीतर देखो कि तुमसे क्या काम हो सकता है। दो-चार महीने में-छः-आठ महीने में, आठ-बारह महीने में या बारह-सोलह महीने में जिस भी कार्य के योग्य हो, जिसे कर सकने का नैसर्गिक गुण तुम्हारे भीतर विराजमान है, उसे पहचानकर, उसे निखारकर उसकी कुशलता हर हालत में प्राप्त कर लो और फिर कर्मक्षेत्र में डट जाओ।
कर्म के बिना इस संसार में रहने या जी सकने की कल्पना मत करो। बेरोजगारी का रोना मत रोओ। अपनी प्रतिभा से, अपनी कर्म-कुशलता से और मेरा आश्रय लेकर मेरे लिए ही तुम अपने अनुकूल किसी ना किसी कार्य में जुट जाओ। फिर जो भी परिणाम आए, मुझे अर्पित करते हुए कर्मक्षेत्र में बुद्धि का पूर्ण इस्तेमालकर डटे रहो। एक दिन देखना तुम्हारा सारा भय जाता रहेगा। तुम्हें सफलता मिलनी शुरु हो जाएगी।
जीवन में आनन्द और प्रसन्नता ही सबसे बड़ी सफलता है। सफल हुए किन्तु जीवन में आनन्द नहीं आया तो वह सफलता किस काम की? दूसरे को दिखाने या बताने के लिए कुछ भी मत करो। जो करो अपने भीतर की वास्तविक पुकार पर करो।
कैसे पता चलेगा कि तुम्हारा रास्ता सही है? तुम्हारे जीवन के लक्ष्य का मार्ग तुम्हें मिलते ही तुम्हारा मन सदा प्रसन्न रहने लगेगा। निराशंक, निर्भय, निर्वैर हो जाएगा जीवन। कार्य के लिए कार्य करते जाने का अनूठा आनन्द आंखों के सामने नाचता मिलेगा। मिशन हो जाएगा जीवन।
जिस रास्ते पर चलते समय तुम्हें भीतर ही भीतर कार्य करने का आनन्द मिलने लगे तो समझ लेना कि तुम उसी कार्य के लिए बने हो, वह कार्य ही तुम्हारे जीवन का आधार है।
कर्म को छोटा या बड़ा, ऊंच या नीच मत समझना। जो भी कर्म जीवन का आधार बनाने के लिए चुनना, उसे मन से करना, पूरे मनोयोग से करना। सच्ची निष्ठा से करना। ऐसा करोगे तो भीतर से कभी खाली नहीं रहोगे।
हो सकता है कि बाहरी संसार के सामने तुम्हें ऊंचाई न मिले लेकिन तुम्हें अपने भीतर पूर्णता मिलेगी। आनन्द का समंदर लहराता मिलेगा। जो तुम्हें सदा ही और तीव्रता से तुम्हारे लिए निर्धारित कार्य में जुटे रहने की प्रेरणा देगा।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।। 17.3
जो कर्मयोगी आत्म यानी स्व के भीतर ही वास्तविक आनन्द और सुख प्राप्त करने लगता है, स्वयं में संतुष्ट और तृप्त रहता है, कोई भी कार्य उसके ऊपर नहीं। वह सभी कार्यों से परे अर्थात असंभव को संभव कर देने की ताकत हासिल कर लेता है।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।। 3.19 श्रीमद्भगवद्गीता।
आसक्ति मत रखना किसी भी चीज में। कर्म को कर्म समझकर करते चले जाना। आसक्ति नहीं रखोगे और कर्म को ही परमात्मा की पूजा समझकर कुशलतापूर्वक करते रहोगे तो फिर कभी मुश्किल में नहीं पड़ोगे।
पूजा की विधि होती है, उसी प्रकार कार्य कोई भी क्यों न हो, उसे करने का एक ढंग होता है, जैसे पूजा का प्रारंभ अपने बाहर और भीतर की साफ-सफाई-स्वच्छता से करते हैं, उसी प्रकार अपने कार्य की शुरुआत करते समय केवल कार्य करने के ढंग का ध्यान रखो, स्वयं को पवित्र रखो। लक्ष्य की पवित्रता का ध्यान रखो। श्रद्धा, निष्ठा, तपस्या के साथ कर्मपथ पर आगे बढ़ो।
अपने निर्धारित कर्म से भटकाने वाली, उससे परे ले जाने वाली किसी भी चीज में आसक्त न होते हुए कर्मफल के प्रति भी निरासक्त होकर कर्मपथ पर डटो। होगा वही जो विधिपूर्वक कार्य करने का परिणाम होता है। वही परिणाम होगा जो अपेक्षित है। अगर परिणाम अपेक्षानुसार नहीं है तो कर्म की विधि का पुनःपरीक्षण करो। विधि निर्दोष है तो परिणाम आकर ही रहेगा।
कार्यविधि सही समझ आ गई तो सब कुछ सरल से सरलतम होता चला जाएगा। मुश्किल ये है कि स्टेप बाइ स्टेप यानी चरणबद्ध ढंग से कार्य करने के तरीके को न समझने के कारण ही लोग असफल और निराश हो जाते हैं। कसौटी पर खुद को और अपने कर्म सहित बार-बार कसते रहो। सारे दोष खुदबखुद दूर होते चले जाएंगे। केवल शुद्ध कर्म ही बचेगा। उस परिणाम आकर रहेगा। असफलता बताती है कि कार्य पूरे मनोयोग से और सभी प्रकार की परिस्थिति का पूर्व परीक्षण बिना किए ही करने का प्रयास हुआ है।
कर्म और उसकी विधि से प्रेम करो, इस प्रकार करते रहने से उसका परिणाम क्या आएगा, यह तय है। इस प्रकार परिणाम सदा तुम्हारे पक्ष में रहेगा। लेकिन उस परिणाम के चक्कर में मत पड़ जाना। परिणाम का अहंकार माथे में मत भर लेना नहीं तो नष्ट होने में देर नहीं लगेगी। परिणाम कार्य और कार्यविधि को कुशलतापूर्वक करने से होता है।
कुशलता योग से आती है। योग आत्मा और परमात्मा के अनुसंधान से होता है। इस अनुसंधान में जैसे ही सांस-सुर-ताल लयबद्ध होते हैं, प्राणायाम होने लगता है। गहरी सांस गहरे चिन्तन और कुशल कर्म को जन्म देने लगती है। ये सांस 24 घंटे तुम्हारे भीतर आती-जाती है। क्योंकि तुम्हारे भीतर कोई महानायक, महासेवक है जिसे यह सांस हर पल रिपोर्ट करती है।
उस नायक और सेवक को जगा लेना ही परम पुरुषार्थ है। इसलिए कार्य करते रहना जबतक कि वह नायक, वह भीतर का सेवक कर्ममय होकर पूर्ण जागृत न हो जाए। कर्मों के परिणाम का परीक्षण बार-बार करना। कोई कमी दिखे तो सुधार कर लेना, विधि में आवश्यकतानुसार बदलाव कर लेना किन्तु किसी भी दशा में कार्य करना मत छोड़ना ।
कार्य करने की सामग्री अर्थात साधनों से, कार्यस्थल से, कंपनी से, मकान से, दुकान से और व्यक्तियों से मोह करने या मोह पालने की जरूरत नहीं। शुद्ध चीज का साथ शुद्धता कभी छोड़ती नहीं। अशुद्ध चीज ज्यादा दिन तक शुद्ध के साथ ठहरती नहीं। तुम्हारे भीतर का शुद्ध भाव ही तुम्हारा होगा, बाकी सब व्यर्थ ही समझो। यहां तक कि तुम्हारा शरीर और उससे जुड़ी सब सामग्री और साधन, सब कुछ यहीं धरा रह जाएगा। केवल कर्म, सिर्फ तुम्हारा कर्म ही तुम्हारे साथ रह जाएगा।
शुद्धभाव से, निष्कपट होकर, कुशलता से किया जाने वाला कर्म मेरी ही पूजा है अर्जुन। यह संपूर्ण संसार और लोक कुशलतापूर्वक किए जाने वाले इसी कर्म पर टिके हैं। तुम्हारा जन्म और तुम्हारी मुक्ति भी इसी कर्म पर आधारित है। इस जीवन में कर्म ही पूजा है। क्या तुम वास्तव में मेरी कर्ममय पूजा कर रहे हो?
केवल डिग्री और स्कूल पढ़ाई पर आश्रित मत रहिए। अपने को कर्म कुशल बना लेने में ही भलाई है। अपने निजी गुणों पर आधारित कोई भी रोजगारपरक कौशल, हुनर सीखकर स्वावलंबी होने का मार्ग ही वास्तविक मार्ग है।