धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।तस्माद् धर्मं न त्यजामि मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।
dharm ev hato hanti dharmo rakshati rakshitah । tasmaaddharmo na hantavyo ma no dharmo hatovadheet ।।
धर्म का लोप कर देने से वह लोप करने वालों का नाश कर देता है और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए, जिससे नष्ट धर्म कभी हमको न समाप्त कर दे।
यदि धर्मका नाश किया जाय, तो वह नष्ट हुआ धर्म ही कर्ताको भी नष्ट कर देता है और यदि उसकी रक्षा की जाय, तो वही कर्ताकी भी रक्षा कर लेता है। इसीसे मैं धर्मका त्याग नहीं करता कि कहीं नष्ट होकर वह धर्म मेरा ही नाश न कर दे ।।
जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए ।
ये श्लोक महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद का हिस्सा है और इसका कुछ हिस्सा भारत में दक्षिणपंथी बहुत प्रयोग करते हैं । आज जानते हैं कि इसका मर्म क्या है । इसके लिए हम दो इतिहासों का प्रयोग करेंगे । महाराज सहस्त्रार्जुन एक महान राजा थे । एक बार वो महर्षि जमदग्नि के आश्रम में पधारे और महर्षि जमदग्नि ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया । महाराज सहस्त्रार्जुन ने जब देखा कि महर्षि जमदग्नि द्वारा किये गए आदर-सत्कार का कारण उनकी कामधेनु गौ है तो वे बलपूर्वक उसे अपनी राजधानी में ले गए । जब भगवान परशुराम को इसका पता चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने महाराज सहस्त्रार्जुन को उनकी सेना सहित मृत्युदंड दे दिया । महाराज सहस्त्रार्जुन अपना धर्म भूल गए और मोह में पड़कर अधर्म कर बैठे इसलिए उनके धर्म ने उनका त्याग कर दिया और भगवान परशुराम के रूप में काल ने उन्हें ग्रस लिया । जब करुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन मोह में पड़ गया और भगवान कृष्ण से कहने लगे गया कि अपने सगे-संबंधियों से युद्ध में लड़ने से अच्छा है में भिक्षा माँग कर अपना जीवन निर्वाह करूँ तो भगवान कृष्ण ने कहा कि एक क्षत्रिय के रूप में तुम्हारा धर्म है युद्ध करना । इसलिए गांडीव उठायो । अर्जुन ने अपने पुरुषार्थ को पहचाना और युद्ध लड़ने के लिए तैयार हुआ । उसने अपने धर्म की रक्षा की और युद्ध में विजय प्राप्त की । धर्म ही क्षत्रिय को क्षत्रिय बनाता है । अगर धर्म की सही से ज्ञान न हो तो कोई क्षत्रिय को उसके धर्म से विमुख करने के लिए ये भी कह सकता है कि युद्ध करना हिंसा है इसलिए युद्ध का त्याग करो । अगर क्षत्रिय को अपने धर्म का ज्ञान न हो तो वो ये कर भी देगा और अपने धर्म से विमुख होकर मृत्यु को प्राप्त होगा क्योंकि उसे पता ही नहीं कि किस परिस्थिति में हिंसा करना धर्म है और किसमें अधर्म । ।। हरि शरणं: ।।
सुशान्त चन्द्र कालिया