
ratana saum janama gamvayau
Change Bhasha
रतन-सौं जनम गँवायौ हरि बिनु कोऊ काम न आयौ। इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥ कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ। तामैं तैं ततछन ही काढ़यौ, पल भर रहन न पायौ॥ हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ। चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥ बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ। पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुड़ायौ॥ आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड़ लड़ायौ। तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥ पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ। लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥