Pratiksha
Change Bhasha
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भान्ति कि जैसे, कोइ गत वीणा पर बज कर
अभी अभी सोयी खोयी सी, सपनो में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियां जाग्रत सुधियों सी आती हैं
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले
पर ऎसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले
सांसे घूम-घूम फिर फिर से असमंजस के क्षण गिनती हैं
मिलने की घडियां तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में मैनें पलक पांवडे डाले
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन रह्ता अपने होश सम्हाले
तारों की महफ़िल ने अपनी आंख बिछा दी किस आशा से
मेरी मौन कुटी को आते, तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूं, पगचाप तुम्हारी मग से आती
रग-रग में चेतनता घुलकर, आंसू के कण सी झर जाती
नमक डली सा घुल अपनापन, सागर में घुलमिल सा जाता
अपनी बांहो में भर कर प्रिय, कंठ लगाते तब क्या होता?
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता?