Sandhya ke bas do bol suhane lagte hai
Change Bhasha
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको
बोल-बोल में बोल उठी मन की चिड़िया
नभ के ऊँचे पर उड़ जाना है भला-भला!
पंखों की सर-सर कि पवन की सन-सन पर
चढ़ता हो या सूरज होवे ढला-ढला !
यह उड़ान, इस बैरिन की मनमानी पर
मैं निहाल, गति स्र्द्ध नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
सूरज का संदेश उषा से सुन-सुनकर
गुन-गुनकर, घोंसले सजीव हुए सत्वर
छोटे-मोटे, सब पंख प्रयाण-प्रवीण हुए
अपने बूते आ गये गगन में उतर-उतर
ये कलरव कोमल कण्ठ सुहाने लगते हैं
वेदों की झंझावात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
जीवन के अरमानों के काफिले कहीं, ज्यों
आँखों के आँगन से जी घर पहुँच गये
बरसों से दबे पुराने, उठ जी उठे उधर
सब लगने लगे कि हैं सब ये बस नये-नये।
जूएँ की हारों से ये मीठे लगते हैं
प्राणों की सौ सौगा़त नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।
ऊषा-सन्ध्या दोनों में लाली होती है
बकवासनि प्रिय किसकी घरवाली होती है
तारे ओढ़े जब रात सुहानी आती है
योगी की निस्पृह अटल कहानी आती है।
नीड़ों को लौटे ही भाते हैं मुझे बहुत
नीड़ो की दुश्मन घात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।