क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति और नई शिक्षा पद्धति में ऐसे गुरु निर्मित हो सकेंगे?

सनातन भारतीय परंपरा में गुरु अग्निरूप माना गया है किन्तु वह जलाता नहीं है, वह अपने तप की आंच से शिष्य को तपाता और चमकाता है, वह शिष्य रूपी तत्व के गुणधर्म के अनुसार उसमें यथायोग्य ऐसा परिवर्तन कर देता है जिसमें से शिष्य के वास्तविक स्वरूप निखरकर सामने आ जाता है।

क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति और नई शिक्षा पद्धति में ऐसे गुरु निर्मित हो सकेंगे?

वर्तमान शिक्षा पद्धति और नई शिक्षा पद्धति

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी कहा करते थे कि गुरु अग्निधर्मा भी है और आकाशधर्मा भी। शिष्य के गुणधर्म को पहचानकर आवश्यक तपश्चर्या में उसे सुयोग्य पात्र बनाने के बाद वह उसके लिए आकाश जैसी अनंत संभावनाओं के द्वार भी खोलता है, उसे मुक्ताकाश का पंक्षी बनाकर वह अपने विद्यालय के आंगन में फिर से वापस आ जाता है दूसरे शिष्यों के पंखों को आकार देने, उन्हें गढ़ने, उन्हें मानवीय गुणों का आगार बनाने।

लोहा उदाहरण है जो अग्नि के संपर्क में आकर यथायोग्य रूप प्राप्त कर लेता है। मिट्टी भी उदाहरण है, मिट्टी के पात्र अग्नि के संपर्क में आकर स्थायी भाव को प्राप्त कर लेते हैं। स्वर्ण और रजत यानी चांदी समेत सभी धातुएं उदाहरण है जिन्हें अग्नि अपने संपर्क से शुद्ध कर देती है, कोयला भी उदाहरण है, जिसके अस्तित्व को अग्नि के कारण सार्थकता प्राप्त होती है।

गुरु की महिमा पर कबीरदास कहते हैं-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है,

गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट ।

अंतर हाथ सहार दै,

बाहर बाहर बाहै चोट ।।

गुरु की महिमा तुलसीदास ने तो अद्भुत गाई है। बालकाण्ड में गोस्वामीजी लिखते हैं कि

बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।

इस सोरठे के अनुसार, मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा सागर है और नर रूप में श्री हरि याने भगवान हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं।

रामचरित मानस के प्रारंभ में बालकाण्ड में संस्कृत के श्लोकों की पहली कुछ पंक्तियों में गोस्वामी जी लिखते हैं कि –

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।

यमाश्रितो हि वक्रोअपि चंद्रः सर्वत्र वन्द्यते।

अर्थात जो ज्ञानरूप हैं, जो सदा साथ हैं, वही गुरु रूप हैं, वह शंकरजी की तरह हैं,जिनकी शरण पाकर टेढी आकृति वाला चंद्रमा भी संसार में यश और वन्दना पा जाता है।

लोकभाषा में मानस में बालकाण्ड की पहली चौपाई भी गोस्वामी जी ने गुरु महिमा में समर्पित की है-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।

अर्थात- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी बूटी) का सुंदर चूर्ण हैं, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है।

पुनः आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी की बात पर आता हूं। वह कहते थे कि भारतीय परंपरा गुरु को शिलाधर्मी होने का निषेध करती है जिसमें कथित गुरु शिष्यों पर पत्थर की तरह कहर बनकर ऐसा टूटता है कि जैसे कोमल घास पत्थर के नीचे दबकर पीली पड़ जाती है या नष्ट हो जाती है, जिसके नीचे कोई अंकुर पनप ही नहीं सकता।

भारतीय परंपरा गुरू के रूप मे जिस व्यक्तित्व की संकल्पना प्रस्तुत करती है वह गुरु निर्मित करने की शिक्षा पद्धति कैसी होती है, शिक्षक दिवस पर इसी चिन्तन में जुटा हूं। क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति और नई शिक्षा पद्धति में ऐसे गुरु निर्मित हो सकेंगे, यह प्रश्न सम्मुख खड़ा हो जाता है।

Explore brah.ma

Create an Impact!

Keep Brah.ma Alive and Thriving

or Connect on Social

Soulful Sanatan Creations

Explore our Spiritual Products & Discover Your Essence
Best Sellers

Best Sellers

Discover Our Best-Selling Dharmic T-Shirts
Sanatani Dolls

Sanatani Dolls

A new life to stories and sanatan wisdom to kids
Dharmic Products

Dharmic Products

Products for enlightment straight from kashi
Sanskrit T-shirts

Sanskrit T-shirts

Explore Our Collection of Sanskrit T-Shirts
Yoga T-shirts

Yoga T-shirts

Find Your Inner Zen with our Yoga Collection