Sukh aur Dukh dristikon matra hai
जो साधन संपन्न है, सुविधाओं से भरा-पूरा है, उसके अधिक चिंतित रहने का कारण यह रहता है कि वह व्यक्ति अपनी संपन्नता के अभिमान में संसार के सारे सुख अपने लिए चाहता रहता है ।

जो साधन संपन्न है, सुविधाओं से भरा-पूरा है, उसके अधिक चिंतित रहने का कारण यह रहता है कि वह व्यक्ति अपनी संपन्नता के अभिमान में संसार के सारे सुख अपने लिए चाहता रहता है ।
इस संसार में असंख्य व्यक्ति ऐसे हैं जो साधन संपन्न होने पर भी चिंतित और उद्विग्न दिखाई देते हैं । यदि गहराई से देखा जाए तो जो जितना साधन संपन्न और सुविधाओं से भरा-पूरा है, वह उतना ही व्यग्र चिंतित और विकल दिखाई देता है । इसके विपरीत कम साधनों और अभाव वाले व्यक्ति मस्त और मनमौजी दिखाई देंगे ।
जो साधन संपन्न है, सुविधाओं से भरा-पूरा है, उसके अधिक चिंतित रहने का कारण यह रहता है कि वह व्यक्ति अपनी संपन्नता के अभिमान में संसार के सारे सुख अपने लिए चाहता रहता है । वह हर समय प्रसन्न रहने और हँसी खुशी पाने के लिए लालायित रहा करता है । बहुत कुछ संपन्नता के बावजूद भी जब वह अप्रिय परिस्थिति के बीच पहुँचता है तो उसका रोम-रोम दुखी हो उठता है वह सोचने लगता है कि इससे उसका पूरा जीवन दु:खों की क्रीड़ास्थली बन गया है ।
दूसरा व्यक्ति अभावग्रस्त होने पर भी बहुत कुछ निश्चिंत एवं प्रसन्न दीखता है । न उसे अभाव सताता है और न संपन्नता की कामना ही क्लेश दे पाती है । वह जो कुछ पाता है, खा लेता, पहन लेता है और जहाँ स्थान मिलता सो जाता है । भोजन, वस्त्र और निवास की घोर समस्या होने पर भी उसके प्रसन्न रहने का एक कारण उसका संतोष है ।
एकसी परिस्थिति के दो व्यक्तियों में से एक को दुखी और एक को प्रसन्न देखकर यही समझ में आता है कि परिस्थितियाँ मात्र ही, दुख सुख का कारण नहीं है । यह मनुष्य का अपना दृष्टिकोण तथा मनोभूमि का स्तर है जो उन्हें दुखी किया करता है ।
संपत्ति के लिए रोने और चिंतित होने वाला व्यक्ति यदि यह सोच ले कि अधिक संपत्ति उपार्जन के लिए मनुष्य को उचित एवं अनुचित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है जिससे उसकी बुद्धि कलुषित और आत्मा पतित होती है । साथ ही धन संपति पा जाने पर उसकी रक्षा करने और बढ़ाने की इच्छा चिंता बनकर साथ लग जाती है । तब ऐसी दशा में सुख कहाँ ?
अभाव के प्रति यदि इस प्रकार सोच लिया जाए कि यह ईश्वर की एक कृपापूर्ण प्रसन्नता हैं, जिसके कारण वह संपत्ति एवं धन-दौलत के कारण उत्पन्न होने वाले झंझटों से बच जाता है । संपत्ति को बढ़ाने उसकी रक्षा करने आदि की चिंता उसके पास तक नहीं फटकती । वह निश्चित एवं नीर्द्वंद्व जीवन व्यतीत करता है । संपत्ति एवं सम्पन्नता-जन्य दोषों से वह सहज ही बचा रहता है । जिससे उसका मन-मस्तिष्क तथा शरीर अधिकतर स्वस्थ ही रहता है और उसके पास दुखी अथवा व्यग्र होने का कोई कारण नहीं रह जाता । संपन्नता अथवा विपन्नता मनुष्य के सुख-दुःख का हेतु नहीं होती, हेतु है उसका दृष्टिकोण, सोचने का ढंग और मानसिक स्तर ।
जीवन में निश्चित एवं नीर्द्वंद्व रहने के लिए मनुष्य को सुख-साधन जुटाने से पूर्व अपनी मनोभूमि को स्वच्छ एवं समुन्नत बनाना चाहिए । इसके बिना वह किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट नहीं रह सकता । हर समय उसे दुखद भावनाएँ ही घेरे रहेंगी ।
मनुष्य का यह हठ कि वह जिस प्रकार को अवस्थाए एवं परिस्थितियाँ अपने लिए चाहता है, उसके विपरीत स्थिति उसके सामने न आए उसके दु:खों का एक विशेष कारण है । संसार का निर्माण किसी एक व्यक्ति के लिए तो हुआ नहीं जिससे वह उसकी इच्छा के अनुसार ही गतिशील रहे । केवल वे ही परिस्थितियाँ सामने आएँ जिन्हें वह चाहता है। संसार का निर्माण तो जीवमात्र के लिए हुआ है । सभी प्राणी समान रूप से सुख के अधिकारी हैं । हो सकता है कि जिस परिस्थिति में हमें दुख का अनुभव होता है, वह किसी दुसरे के लिए सुख देने वाला हो । ऐसी दशा मे उसका आना बहुत आवश्यक है । सुख-दुःख का क्रमिक आवागमन संसार का शाश्वत विधान है । ऐसी दशा में केवल अपने मनोनुकूल परिस्थितियों का आग्रह न केवल स्वार्थ अपितु ईश्वरीय विधान के प्रति अस्वीकृति है, जो एक प्रकार से नास्तिकता इश्वर द्रोह एवं भयंकर पाप है ।
निरसंदेह वह मनुष्य बहुत ही दयनीय है जो सुख में तो प्रसन्न और अप्रिय परिस्थिति में आंसू बहाता है। वह प्रकृति के इस विधान को नहीं समझ पाता कि जब उसे प्रसन्नता प्राप्त हुई है उससे पहले वह प्रतिकूल परिस्थितियों से परेशान था । दु:ख के कारण दूर हुए और उसे सुख प्राप्त हुआ । आज़ जब वह दु:खद परिस्थितियों में है तो क्यों रोता है ? दु:ख के पीछे सुख और सुख के पीछे दु:ख संसार का एक अविकल नियम है न तो यह कभी बदला है और न बदला जा सकता है । तब फिर निरर्थक द्वंद्वात्मक स्थिति को क्यों स्वीकार किया जाए। बड़ी से बड़ी आपत्ति और भयानक से भयानक दु:ख आने पर मनुष्य उससे अभिभूत रहता हुआ भी किसी न किसी समय क्षणभर को उसे भूल ही जाता है और एक शांतिपूर्ण स्वाभाविक अवस्था में आ जाता है, तब क्या कारण है कि शांति के उस क्षणिक समयं को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता ।
वास्तविक बात तो यह है कि न तो दुख हमें हर समय पकड़े रहता है और न उसमें ऐसी कोई शक्ति होती है कि हमारे बिनाचाहे वह हमें अप्रसन्न अथवा विवादग्रस्त बनाए रहे । यदि ऐसा होता तो एक बार आए हुए दुख से मनुष्य कभी न छूट पाता । आठों याम जीवनभर वह एक ही दुखद स्थिति में तड़पता रहता । किंतु ऐसा कभी होता नहीं । दुखद परिस्थितियाँ आती हैं, मनुष्य परेशान होता है और फिर एक-दो दिन में वह स्थिति समाप्त हो जाती है । इसका ठीक-ठीक अर्थ यही है कि दुख-सुख का अपना कोई अस्तित्व अथवा प्रभाव नहीं है। उसकी वेदना हमारी स्वीकृति, अस्वीकृति पर निर्भर करती है । जिन परिस्थितियों को हम दु:खद स्वीकृत कर लेते हैं, वे हमें दुख और जिन परिस्थितियों को हम सुखद स्वीकार कर लेते हैं, वे हमें सुख देने लगती हैं।
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