हरि अपनैं आंगन कछु गावत
हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥ बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत
हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥ बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत
मैया! मैं नहिं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥ देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो। हौं जु कहत
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो। मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥ कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥ तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो । भरोसो… साधन और नही या
तिहारो दरस मोहे भावे श्री यमुना जी । श्री गोकुल के निकट बहत हो, लहरन की छवि आवे ॥१॥ सुख देनी दुख हरणी श्री यमुना
कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार । बिबिध खिलौना भाँति के, गजमुक्ता चहुँधार ॥ जननी उबटि न्हवाइ के, क्रम सों लीन्हे गोद । पौढाए
कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार । बिबिध खिलौना भाँति के, गजमुक्ता चहुँधार ॥ जननी उबटि न्हवाइ के, क्रम सों लीन्हे गोद । पौढाए
पलना स्याम झुलावत जननी । अति अनुराग पुरस्सर गावति, प्रफुलित मगन होति नंद घरनी ॥१॥ उमंगि उमंगि प्रभु भुजा पसारत, हरषि जसोमति अंकम भरनी ।
पालनैं गोपाल झुलावैं । सुर मुनि देव कोटि तैंतीसौ कौतुक अंबर छावैं ॥१॥ जाकौ अन्त न ब्रह्मा जाने, सिव सनकादि न पावैं । सो अब
हालरौ हलरावै माता । बलि बलि जाऊँ घोष सुख दाता ॥१॥ जसुमति अपनो पुन्य बिचारै । बार बार सिसु बदन निहारै ॥२॥ अँग फरकाइ अलप
कन्हैया हालरू रे । गुढि गुढि ल्यायो बढई धरनी पर डोलाई बलि हालरू रे ॥१॥ इक लख मांगे बढै दुई नंद जु देहिं बलि हालरू
नाम महिमा ऐसी जु जानो । मर्यादादिक कहें लौकिक सुख लहे पुष्टि कों पुष्टिपथ निश्चे मानो ॥१॥ स्वाति जलबुन्द जब परत हें जाहि में, ताहि
भक्त को सुगम श्री यमुने अगम ओरें । प्रात ही न्हात अघजात ताकें सकल जमहुं रहत ताहि हाथ जोरे ॥१॥ अनुभवि बिना अनुभव कहा जानही
फल फलित होय फलरूप जाने । देखिहु ना सुनी ताहि की आपुनी, काहु की बात कहो कैसे जु माने ॥१॥ ताहि के हाथ निर्मोल नग
श्री यमुने पति दास के चिन्ह न्यारे । भगवदी को भगवत संग मिलि रहत हैं, जाके हिय बसत प्राण प्यारे ॥१॥ गूढ यमुने बात सोई
साची कहो मनमोहन मोसों तो खेलों तुम संग होरी । आज की रेन कहा रहे मोहन कहां करी बरजोरी ॥१॥ मुख पर पीक पीठिपर कंकन
व्रज में हरि होरी मचाई । इततें आई सुघर राधिका उततें कुंवर कन्हाई । खेलत फाग परसपर हिलमिल शोभा बरनी न जाई ॥१॥ नंद घर
वृंदावन एक पलक जो रहिये। जन्म जन्म के पाप कटत हे कृष्ण कृष्ण मुख कहिये ॥१॥ महाप्रसाद और जल यमुना को तनक तनक भर लइये।
श्री वल्लभ भले बुरे दोउ तेरे। तुमही हमरी लाज बढाई, विनती सुनो प्रभु मेरे ॥१॥ अन्य देव सब रंक भिखारी, देखे बहुत घनेरे । हरि
छगन मगन प्यारे लाल कीजिये कलेवा । छींके ते सघरी दधीऊखल चढ काढ धरी, पहरि लेहु झगुलि फेंट बांध लेहु मेवा ॥१॥ यमुना तट खेलन
दोउ भैया मांगत मैया पें देरी मैया दधि माखन रोटी । सुनरी भामते बोल सुतन के झुठेइ धाम के काम अंगोटी ॥१॥ बलजु गह्यो नासा
बोले माई गोवर्धन पर मुरवा । तेसी ये श्यामघन मुरली बजाई, तेसेई उठे झुमधुरवा ॥१॥ बडी बडी बूंदन वरषन लाग्यो, पवन चलत अति झुरवा। सूरदास
देखो माई ये बडभागी मोर। जिनकी पंख को मुकुट बनत है, शिर धरें नंदकिशोर॥१॥ ये बडभागी नंद यशोदा, पुन्य कीये भरझोर। वृंदावन हम क्यों न
हों तो एक नई बात सुन आई। महरि जसोदा ढोटा जायो, आंगन बजत बधाई ॥१॥ कहिये कहा कहत नहि आवे रतन भूमि छबि छाई ।
पहरे पवित्रा बैठे हिंडोरे दोऊ निरखत नेन सिराने। नव कुंज महल में राजत कोटिक काम लजाने ॥१॥ हास विलास हरत सबकेअन अंग अंग सुख साने
पवित्रा पहरे को दिन आयो। केसर कुमकुम रसरंग वागो कुंदन हार बनायो॥१॥ जय जयकार होत वसुधा पर सुर मुनि मंगल गायो। पतित पवित्र किये सुख
पवित्रा श्री विट्ठलेश पहरावे। व्रज नरेश गिरिधरन चंद्र को निरख निरख सचु पावे॥१॥ आसपास युवतिजन ठाडी हरखित मंगल गावे। गोविंद प्रभु पर सकल देवता कुसुमांजलि
पवित्रा पहरत हे अनगिनती। श्री वल्लभ के सन्मुख बैठे बेटा नाती पंती॥१॥ बीरा दे मुसिक्यात जात प्रभु बात बनावत बनती। वृंदावन सुख पाय व्रजवधु चिरजीयो
व्रजमंडल आनंद भयो प्रगटे श्री मोहन लाल। ब्रज सुंदरि चलि भेंट लें हाथन कंचन थार॥१॥ जाय जुरि नंदराय के बंदनवार बंधाय। कुंकुम के दिये साथीये
राधा प्यारी कह्यो सखिन सों सांझी धरोरी माई। बिटियां बहुत अहीरन की मिल गई जहां फूलन अथांई॥१॥ यह बात जानी मनमोहन कह्यो सबन समुझाय। भैया
अरी तुम कोन हो री बन में फूलवा बीनन हारी। रतन जटित हो बन्यो बगीचा फूल रही फुलवारी॥१॥ कृष्णचंद बनवारी आये मुख क्यों न बोलत
देखो री हरि भोजन खात। सहस्त्र भुजा धर इत जेमत हे दूत गोपन से करत हे बात॥१॥ ललिता कहत देख हो राधा जो तेरे मन
मलार मठा खींच को लोंदा। जेवत नंद अरु जसुमति प्यारो जिमावत निरखत कोदा॥ माखन वरा छाछ के लीजे खीचरी मिलाय संग भोजन कीजे॥ सखन सहित
शयन भोग के समय राधे जू आज बन्यो है वसंत। मानो मदन विनोद विहरत नागरी नव कंत॥१॥ मिलत सन्मुख पाटली पट मत्त मान जुही। बेली
चिरजीयो होरी को रसिया चिरजीयो। ज्यों लो सूरज चन्द्र उगे है, तो लों ब्रज में तुम बसिया चिरजीयो ॥१॥ नित नित आओ होरी खेलन को,
ऐसो पूत देवकी जायो। चारों भुजा चार आयुध धरि, कंस निकंदन आयो ॥१॥ भरि भादों अधरात अष्टमी, देवकी कंत जगायो। देख्यो मुख वसुदेव कुंवर को,
जागिये ब्रजराज कुंवर कमल कोश फूले। कुमुदिनी जिय सकुच रही, भृंगलता झूले॥१॥ तमचर खग रोर करत, बोलत बन मांहि। रांभत गऊ मधुर नाद, बच्छन हित
औरन सों खेले धमार श्याम मोंसों मुख हू न बोले। नंदमहर को लाडिलो मोसो ऐंठ्यो ही डोले॥१॥ राधा जू पनिया निकसी वाको घूंघट खोले। ’सूरदास’
प्रात समय नवकुंज महल में श्री राधा और नंदकिशोर ॥ दक्षिणकर मुक्ता श्यामा के तजत हंस अरु चिगत चकोर ॥१॥ तापर एक अधिक छबि उपजत
रे मन कृष्ण नाम कहि लीजै गुरु के बचन अटल करि मानहिं, साधु समागम कीजै पढिए गुनिए भगति भागवत, और कथा कहि लीजै कृष्ण नाम
जौं आजु हरिहिं न अस्त्र गहाऊँ तौं लाजौं गंगा जननी को, शांतनु सुत न कहाऊँ. स्यंदन खंडी महारथि खंड्यो, कपिध्वज सहित गिराऊँ पांडव दल सन्मुख
अब मैं जानी देह बुढ़ानी । सीस, पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन की दसा सिरानी। आन कहत, आनै कहि आवत, नैन-नाक बहै पानी। मिटि
मन की मन ही माँझ रही. कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही. अवधि असार आस आवन की,तन मन विथा सही. अब इन जोग
हरि हैं राजनीति पढि आए. समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए. इक अति चतुर हुतै पहिलें हीं,अब गुरुग्रंथ पढाए. बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी
हमारे हरि हारिल की लकरी. मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ करि पकरी. जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि,कान्ह-कान्ह जकरी. सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं
ऊधौ,तुम हो अति बड़भागी अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी ज्यों जल मांह तेल
गिरि जनि गिरै स्याम के कर तैं। करत बिचार सबै ब्रजवासी, भय उपजत अति उर तैं। लै लै लकुट ग्वाल सब धाए, करत सहाय जु
आजु मैं गाई चरावन जैहों बृंदाबन के भाँति भाँति फल, अपने कर मैं खैहौं। ऎसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भांति। तनक तनक पग
सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप